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दिखाई देने वाली ओष्ठादि की हलन-चलन रूप क्रिया मे से ही आवाज निकल रही है। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु यद्यपि अपनेअपने स्वत सिद्ध परिणमन स्वभाव के बल पर ही नियत समय मे नियत कार्यरूप परिणत होती है लेकिन साथ ही निमित्त भी अपने परिणमन स्वभाव के आधार पर नियत समय मे नियत कार्यरूप परिणत होते रहते हैं अत निमित्तो का उपादान से जन्य कार्य के साथ अन्वयीपना समझ मे आने के कारण कार्यकारणभाव न रहते हुए भी लोक मे ऐसा बोला जाता है कि अमुक कार्य मे अमुक निमित्त है । वस्तुत कार्य तो सर्वदा केवल उपादानभूत वस्तु के स्वत सिद्ध परिणमन स्वभाव के बल पर ही उत्पन्न होता है निमित्त वहा अकिचित्कर ही बना रहता है । इस सम्बन्ध मे प० फूलचन्द्र जी ने जैनतत्त्वमीमासा मे बहुत लिखा है उसमे से कुछ को यहा उद्धृत किया जा रहा है।
१-" रूढिवश जो जिस कार्य का निमित्त कहा जाता है उसके सद्भाव मे भी तब तक कार्य की सिद्धि नही होती जब तक जिस कार्य का वह निमित्त कहा जाता है उसके अनुरूप उपादान की तैयारी न हो । अतएव कार्य की सिद्धि मे निमित्तो का होना अकिचित्कर है।" ।
(जैनतत्त्वमीमासा पृष्ठ २५२ ) २-"उपादान के ठीक होने पर निमित्त मिलते ही हैं उन्हे मिलाना नही पडता। निमित्त स्वय कार्यसाधक नही है किन्तु उपादान के कार्य के अनुकूल व्यापार करने पर जो बाह्य सामग्री उसमे हेतु होती है उसमे निमित्तपने का व्यवहार किया जाता है।"
(जैनतत्त्वमीमासा पृष्ठ २५३ ) ३.-"इस प्रकार कार्योत्पत्ति के पूरे कारणो पर दृष्टिपात करने से ही यह फलित होता है कि जहा पर कार्य के अनुकूल