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समर्थ उपादान जिस कार्य का वह उपादान होता है उस कार्य के एक समय पूर्व होता है कार्य समर्थ उपादान के अनुसार ही होता है । समर्थ उपादान प्रत्येक समय का अन्य होता है ।" ( जैनतत्त्वमीमासा पृष्ठ ४१ की टिप्पणी )
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(२) यद्यपि प० फूलचन्द्रजी ने अपनी उल्लिखित दृष्टि के समर्थन मे शास्त्रीय उद्धरणो का 'जैनतत्त्वमीमासा' पुस्तक मे भण्डार भर दिया है परन्तु इसके साथ यह समस्या भी विचारणीय वन कर उनके सामने उपस्थित हुई मालूम देती है कि आगम ग्रन्थो मे कार्योत्पत्ति की पद्धति पर विचार करते समय निमित्तो की स्थिति को भी स्वीकार किया गया है । इसलिये आगम के साथ अपनी दृष्टि का सामजस्य स्थापित करने के लिये उनका कहना है कि कार्य तो अपने स्वकाल मे केवल उपादान की अपनी योग्यता के आधार पर ही उत्पन्न होता है। फिर भी जव जो कार्य उत्पन्न होता है तब निमित्त भी वहा पर तदनुकूल विद्यमान रहते हैं । इसका आशय यह हुआ कि कार्य जब भी उत्पन्न होगा तब वह निमित्तो के सद्भाव मे हो होगा । इस तरह यह समस्या कभी उत्पन्न नही होगी कि निमित्तो का अभाव होकर कार्योत्पत्ति रुक जायगी क्योकि उस अवसर पर निमित्तो का सद्भाव सदा बना ही रहेगा ।
कार्योत्पत्ति के अवसर पर निमित्तो की स्थिति के सम्वन्ध मे प० फूलचन्द्र जी की उक्त दृष्टि का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार सिनेमा फिल्मो मे मानव चित्रो मे दिखाई देने वाली ओष्ठादि की हलन चलन रूप क्रिया के साधन अन्य होते
और दर्शको को श्रवण मे आने वाली आवाज के साधन अन्य होते है, फिर भी एक ही साथ उत्पन्न होने के कारण वहा पर दर्शक की समझ मे एकाएक यह आता है कि मानव चित्रो मे