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१२ द्रव्य की स्ववीर्य और उपादान शक्ति होती है वहा अन्य साधन सामग्री स्वयमेव मिल जाती है ।" (जैनतत्त्वमीमासा पृष्ठ ६७)
४-कार्योत्पत्ति मे निमित्त की अकिंचित्करता को प० फूलचन्द्रजी केवलज्ञान के आधार पर भी सिद्ध करते हैं। तथा वे यह तर्क भी उपस्थित करते हैं कि लोक मे मनुष्य जैसा सोचता है और उसके अनुसार जैसा प्रयत्न करता है वैसा कार्य न होकर बहुत बार उसके प्रतिकूल भी कार्य हो जाया करता है, तीसरे उनका कहना है कि जब वस्तु परिणमनशील है तो निमित्तो के अभाव मे अथवा बाधक निमित्तो के सद्भाव मे उसका एक क्षण के लिये भी परिणमन रुक जाना असभव है अत कार्योत्पत्ति मे निमित्तो को वल देना युक्ति सगत नही है। केवल इतना ही स्वीकार करना उचित है कि जब कार्य अपने उपादान के बल पर उत्पन्न हो रहा हो तब उसके अनुकूल निमित्त रहते ही हैं।
इस प्रकार मैने कार्यकारणभाव के सम्बन्ध मे प० फलचन्द्रजी की दृष्टि को यहा आवश्यकतानुसार सक्षेप से सग्रहीत करने का प्रयत्न किया है । इसमे यदि अतिरेक या विपर्यास जैसी स्थिति पैदा होगयी हो तो मैं प० जी से व पाठको से 'निवेदन करता है कि वे उसकी सूचना मुझे देने की कृपा करें मैं अपनी दृष्टि मे सशोधन कर लूगा । मतभेद कहा-कहा है ? १ इस सम्बन्ध में जैनतत्त्वमीमामा का केवलज्ञानस्वभावमीमासा'
प्रकरण देखो। २ इसका समर्थन प० जगन्मोहनलालजी ने जैनतत्त्वमीमासा के प्राक
कथन में प्रारम्भिक पृष्ठ पर किया है। ३ इसका भी समर्थन प० जगन्मोहनलालजी ने जैनतत्त्वमीमासा के
प्राक्कयन में पृष्ठ १२ पर किया है ।