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३६७ तो कार्योत्पत्ति नही होगी व इसी तरह बुद्धि आदि का सहयोग प्राप्त हो लेकिन भवितव्यता न हो तो भी वस्तु मे कार्योत्पत्ति नही होगी। इसका फलितार्थ यह हुआ कि "तादृशी जायते बुद्धि" इत्यादि पद्य जैन-दर्शन की मान्यता के प्रतिकूल ही है क्योकि जिस भवितव्यता से कार्य की उत्पत्ति होती है उसी भवितव्यता से उस कार्य की उत्पत्ति मे कारणभूत बुद्धि आदि की उत्पत्ति अथवा सप्राप्ति मानना पूर्वोक्त प्रकार जैन-दर्शन की मान्यता के साथ समन्वय को प्राप्त नही होती है।
प० फूलचन्द्र जी ने जैनतत्त्वमीमासा के 'उपादान निमित्त मीमासा' प्रकरण में पृष्ठ ६७ पर अपने मन्तव्य की पुष्टि के लिये प० प्रवर टोडरमल जी के मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ के अधिकार ३ पृष्ठ ८१ का उद्धरण देकर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि "तादृशी जायते वृद्धि" इस पद्य मे प्रतिपादित कारण व्यवस्था को जैन-दर्शन में इसी ढग से मान्य किया गया है। उनका वह कथन निम्न प्रकार है
"सो इनकी सिद्धि होय तो कपाय उपशमनेतै दुख दूरि होइ जाइ सुखी होइ । परन्तु इनकी सिद्धि इनके किये उपायनि के आधीन नाही, भवितव्य के आधीन है। जात अनेक उपाय करते देखिये है अर सिद्धि न हो है । वहरि उपाय बनना भी अपने आधीन नाही, भवितव्य के आधीन है । जात अनेक उपाय करना विचार और एक भी उपाय न होता देखिये है । बहुरि काकतालीय न्यायकरि भवितव्य ऐसी ही होइ जैसा आपका प्रयोजन होइ तैसा ही उपाय होइ अर तातै कार्य की सिद्धि भी होइ जाइ तो जिस कार्य सम्बन्धी कोई कपाय का उपशम होइ ।"