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करती है इसलिये अनवस्था दोष की प्रसक्ति नही होगी, तो इसका परिणाम यह होगा कि ऐसी दशा मे कार्य की उत्पत्ति को भी केवल भवितव्यता से मानने की प्रसक्ति हो जायगी तब इसका भी परिणाम यह होगा कि कार्य की उत्पत्ति मे बुद्धि आदि की अकिंचित्करता प्रसक्त हो जायगी । इस पर यदि प० फूलचन्द्र जी यह कहे कि कार्य तो केवल भवितव्यता के आधार पर ही उत्पन्न हुआ करता है वुद्धि आदि उसमे अकचित्कर ही रहा करते हैं तो इस विषय मे भी मेरा कहना यह है कि कार्योत्पत्ति के प्रति बुद्धि आदि को अकिंचित्कर मान लेने पर "तादृशी जायते बुद्धि " इत्यादि पद्य ही निरर्थक हो जायगा । दूसरी बात मैं यह कहना चाहता हूँ कि पूर्व मे कार्योत्पत्ति के प्रति निमित्त कारणो की अकिंचित्करता का खण्डन और कार्यकारिता का समर्थन विस्तार से किया गया है उससे यह निर्णीत हो जाता है कि प० फूलचन्द्र जी का कार्य की उत्पत्ति को केवल भवितव्यता के आधार पर स्वीकार कर उसमे बुद्धि आदि की अकिंचित्करता को मानना मिथ्या है।
इस तरह जैन- दशन की मान्यता के अनुसार तो यही सिद्धान्त स्थिर होता है कि स्वपरप्रत्यय कार्योत्पत्ति मै जिस प्रकार उपादानकारणरूप से स्वत सिद्ध भवितव्यता कारण होती है उसी प्रकार निमित्त कारण रूप से अपने-अपने कारणो से निष्पन्न बुद्धि आदि भी कारण हुआ करते हैं | अपनी-अपनी सत्ता मे भवितव्यता और बुद्धि आदि दोनो ही एक दूसरे के अधीन नही है । इतना अवश्य है कि कार्योत्पत्ति मे दोनो ही एक दूसरे की अधीनता स्वीकार किये हुए है । अर्थात् वस्तु मे कार्योत्पत्ति की योग्यता हो लेकिन बुद्धि आदि का सहयोग उसे प्राप्त न हो