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दर्शनादि मोक्षमार्गरूप परिणत हो रहा है वह जीव भावनिक्षेप स्वरूप निश्चय, परमार्थ, यथार्थ, सत्यार्थ, भूतार्थ, वास्तविक, अन्तरग या अनुपचरित जैन है तथा जो सम्यग्दर्शनादि-मोक्षमार्ग रूप परिणत न होता हुआ भी आगे उस रूप परिणत होने वाला हो वह जीव द्रव्य निक्षेप स्वरूप व्यवहार, अपरमार्थ, अयथार्थ, असत्यार्थ, अभूतार्थ, अवास्तविक, बहिरग या उपचरित जैन है । इसी प्रकार जो सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग रूप परिणत न होता हुआ भी उस जैसा निर्दोप वाह्य रूप धारण किये हुए हो वह जीव स्थापना निक्षेप स्वरूप व्यवहार, अपरमार्थ, अयथार्थ, असत्यार्थ, अभूतार्थ, अवास्तविक, बहिरग या उपचरित जैन है और इसी प्रकार जो जैन कुल मे उत्पन्न होकर उम, कुल के अनुकूल आचरण कर रहा हो वह जीव नाम निक्षेप रूप व्यवहार, अपरमार्थ, अयथार्थ, असत्यार्थ, अभूतार्थ, अवास्तविक, बहिरग या उपचरित जैन है।
इससे भी सिद्ध होता है कि उपचार तो अर्थगत ही होता है तथा उसके प्रतिपादन के आधार पर शब्द को भी उपचरित मानना श्रेयस्कर है जिसका तात्पर्य यह होता है कि उपचरित शब्द निरर्थक नही होता और उसका जो भी अर्थ होता है वह अभिधेय रूप मे ही उस शब्द का प्रतिपाद्य होता है।
प० फूलचन्द्र जी ने अपने कथन मे 'चन्द्रमुखी' शब्द को जो मुख्यार्थ का प्रतिपादक न मानकर उपचरित अर्थ का प्रतिपादक माना है वह भी मिथ्या है कारण कि 'चन्द्रमखी' शब्द समस्त शब्द है। अर्थात् मध्यम पदलोपी बहुव्रीहि समास होकर ही इस शब्द की निष्पत्ति हुई है इस तरह "चन्द्र इव