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________________ ३४८ मुख यस्या सा" इस विग्रह के आधार पर चन्द्रमा के समान मनोज्ञ और आभायुक्त मुखवाली नारी चन्द्रमुखी शब्द का मुख्यार्थ ही निश्चित होता है । इसे उपचरित, लक्ष्य या व्यग्य अर्थ किसी भी हालत मे नही माना जा सकता है । इतना अवश्य है कि उत्प्रेक्षा लकार मे "अमुक नारी का मुख मानो चन्द्रमा ही है” या रूपकालकार मे "निरखत मुखचन्द्र" इत्यादि शब्द प्रयोग भी देखे जाते हैं, तो इन स्थलो मे निमित्त तथा प्रयोजन के आधार पर मुख मे चन्द्रमा का आरोप करके उसे उपचरित अर्थ मानना भी असगत नही है । यहा पर मुख मे चन्द्रमा का आरोप करने के लिये मुख और चन्द्रमा दोनो में विद्यमान मनोज्ञता और आभायुक्तता का साहय रूप लक्ष्यार्थ तो निमित्त है तथा मुख के देखने वालो का आकृष्ट होते रूप व्यग्यार्थं उसका प्रयोजन है । प० फूलचन्द्रजी ने आरोप के विषय मे "गगाया घोष ", " मवा क्रोशन्ति' और " धनुर्वावति" इन तीन उदाहरणो को उपस्थित करके जो इन्हे उपचरित कहा है - यह तो ठीक है परन्तु यहां यह बात ध्यान मे रखने की है कि आरोपित ( उपचरित ) अर्थ लक्ष्यार्थ और व्यग्यार्थ से अलग ही अपना अस्तित्व रखता है । लक्ष्यार्थ व व्यग्यार्थ के साथ आरोपित अर्थ का भेद दिखलाने के लिये यह भी कहा जा सकता है कि आरोप के उद्भव मे लक्ष्यार्थ को निमित्त का व व्यग्यार्थ को प्रयोजन का ही स्थान मिला हुआ है । एक अन्य बात यह भी कही जा सकती है कि एक वस्तु या धर्म मे अन्य वस्तु या धर्म का आरोप होने पर उसके अभिधेय वन जाने पर शब्द निष्ठ अभिघावृत्ति के आधार पर ही उसका प्रतिपादन होता है जब कि शब्द निष्ठ
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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