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________________ यह सब मैं इस आधार पर लिख रहा हूं कि 'जनतत्त्वमीमासा' मे प० फूलचन्द्रजी ने अपनी जिस विचारधारा की झलक दी है वह कानजी स्वामी की विचारधारा से मिलती हुई ३-माना, कि कानजी स्वामी जैनसस्कृति के व्यावहारिक धर्म की कुछ-कुछ क्रियाये यथाशक्ति करते है और प० फलचन्द्रजी ने भी 'जैनतत्त्वमीमासा' मे स्थान-स्थान पर निमित्त तथा व्यवहार की प्रतिष्ठा की है । इसलिये यद्यपि यह कहा जा सकता है कि कानजी स्वामी जो कुछ आर्प-विरुद्ध कहते हैं और प० फलचन्द्र जी ने 'जैनतत्त्वमीमासा' मे जो आर्पविरुद्ध कथन किया है उसमे उनको प्रेरणा देने वाली दुर्भावनाये नही है परन्तु दोनो के कथनो मे उनकी दार्शनिक बुद्धि की कमी का आभास अवश्य मिलता है। ४-यद्यपि कानजी स्वामी लम्बे समय से जैन-सस्कृति की सैद्धान्तिक मान्यता के सम्बन्ध मे अपनी विचारधारा का प्रचार करते आ रहे हैं, परन्तु मेरा अब तक यह विचार रहा कि उनकी विचारधारा का प्रचार समाज मे कितना भी क्यो न हो जावे ? फिर भी उसका असर जैन-सस्कृति की मूलसैद्धान्तिक मान्यता पर तव तक पड़ने वाला नही है, जब तक जैनसमाज का विद्वद्वर्ग उसकी पुष्टि नहीं करता है । अभी तक तो अ० भा० दि० जैन वि० परिषद् ने कानजी स्वामी का पूर्ण सम्मान करते हुए उनकी सैद्धान्तिक विचारधारा के प्रति अपनी असहमति ही प्रगट की है। इतना ही नही, उसने उनके साथ जैन-सस्कृति की सैद्धान्तिक मान्यता के सम्बन्ध में विचारविमर्श करने के लिये एक विद्वत्सगठन की भी स्थापना की है और यह एक कारण है कि मैं अभी तक कानजी स्वामी की विचारधारा के विपय मे कुछ लिखने का लोभ सवरण करता
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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