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रहा हू । उक्त विषय मे कुछ नही लिखने का दूसरा कारण यह है कि वि० परिषद् की उपेक्षा करके व्यक्तिगत रूप से आगे कदम बढाना मेरे लिये उचित भी नही है, लेकिन अव प० फूलचन्द्रजी की 'जैनतत्त्वमीमासा' के प्रकाशित हो जाने से एक तो मेरा यह विचार शिथिल पड गया है कि कानजी स्वामी की विचारधारा का असर जैन - संस्कृति की मूल मान्यता पर पडने वाला नही है, दूसरे प० जी की विचारधारा का कानजी स्वामी की विचारधारा के साथ मेल हो जाने से वि० परिषद् उनके साथ विचार-विमर्श के लिये अपने निर्णीत मार्ग पर अग्रसर रहेगी - इसमे मुझे सदेह होने लगा है ।
इन सब कारणों की वजह से मुझे उक्त विषय मे कुछ लिखना आवश्यक हो गया है । यह सोच कर सर्वप्रथम मैं जैनतत्त्वमीमासा की मीमासा लिखने जा रहा हू ।
१ - वैसे तो जैनतत्त्वमीमासा की मीमासा मे सभी विपय विस्तार से सर्वागीण लिखा जाना चाहिये परन्तु समय और शक्ति के अनुसार जितना सभव होगा मैं उतना ही लिखने का
प्रयत्न करूगा ।
२ – मैं 'जैनतत्त्वमीमासा' के सम्बन्ध मे जितना भी सोचता हू उससे मुझे ऐसा लगता है कि प० फूलचन्द्रजी ने इसके लेखन मे बहुत ही उतावली से काम लिया है क्योकि प० जी की जैनतत्त्वमीमासा का परिणाम जैन-सस्कृति के लिये अच्छा होने वाला नही है । हो सकता है मेरा ऐसा लिखना भावुकता का कार्य समझा जावे, परन्तु यह मैं अपने अन्तकरण की आवाज के रूप मे ही लिख रहा हू ।
३- मुझे इस बात का दुख है कि जैनतत्त्वमीमासा की इस मीमासा के प्रकाशन मे मुझे जैन -सदेश और जैन - मित्र इन