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________________ उसके रहस्य को समझकर हृदयङ्गम कर लेना उच्चकोटि के तर्कशास्त्रियो के लिये भी सरल नहीं है। अत: उसके पठनपाठन से कोई भी व्यक्ति प्राय प्रकाश न पाकर अन्धकार मे ही भटक सकता है। यही कारण है कि आज से कुछ वर्ष पूर्व तक इसके पठन-पाठन और स्वाध्याय के प्रति समाज के सभी वर्गो की रुचि एव प्रवृत्ति प्राय नाममात्र को थी। परन्तु वर्तमान मे एक ओर तो सोनगढ के सत कानजी स्वामी के प्रभावपूर्ण प्रवचनो को सुन कर सौराष्ट्र और गुजरात आदि प्रान्तो के गृहस्थ वर्ग की रुचि एव प्रवृत्ति समयसार के स्वाध्याय की ओर बढी है व दूसरी ओर उत्तरभारत मे श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी के सपर्क से त्यागि-वर्ग का झुकाव भी समयसार के पठन-पाठन और स्वाध्याय की ओर हुआ है। यहा यह बात अवश्य ध्यान मे रखने योग्य है कि जहा कानजी स्वामी के अल्प सपर्क मे आया हुआ प्रत्येक व्यक्ति अपने को समयसार का वेत्ता एव सम्यग्दृष्टि समझने लगता है वहा पूज्यपाद वर्णी जी के सपर्क मे आया हुआ प्रत्येक व्यक्ति अपने अन्त करण मे तत्त्वजिज्ञासुता का ही भाव उत्पन्न करता है, परन्तु यह निश्चित है कि पूज्यपाद वर्णीजी का सपर्क समाज को अब अधिक समय के लिये प्राप्त रहने वाला नहीं है इसलिये इनके पश्चात् समयसारी त्यागि-वर्ग का झुकाव किस ओर हो जायगा? यह बतलाना आज कठिन है। प० फूलचन्द्र जी की 'जैनतत्त्वमीमासा' के प्रकाशन से इस समस्या का और भी जटिल बन जाना स्वाभाविक है । इसके अतिरिक्त अब मुझे यह भी भान होने लगा है कि जैन समाज का विद्वद्वर्ग भी जैन-सस्कृति की सैद्धान्तिक मान्यता के विषय मे बिना चिन्तन किये धीरे-धीरे सोनगढ से प्रवाहित विचारधारा का अनुयायी वन जाने वाला है।
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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