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इस विवेचन का समन्वय निश्चय रत्नत्रय, निश्चय धर्म या निश्चय मोक्ष मार्ग मे तथा व्यवहार रत्नत्रय, व्यवहार धर्म या व्यवहार मोक्षमार्ग मे भी अनुकूलता के साथ कर लेना चाहिये । अर्थात् आत्मकल्याण के प्रति रुचि उत्पन्न हो जाने रूप सम्यग्दर्शन,आत्मज्ञान रूप सम्यग्ज्ञान और आत्मलीनता रूप सम्यक्चारित्र को जो निश्चय आदि शब्दो से पुकारा जाता है वह इसलिए पुकारा जाता है कि ये सब मोक्ष के साक्षात् कारण होते हैं और तत्पश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन, आगम ज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान और अणुव्रत-महावत आदि सम्यक चारित्र को जो व्यवहार आदि शब्दो से पुकारा जाता है वह इसलिए पुकारा जाता है कि ये सब मोक्ष के परम्परया अर्थात् उक्त निश्चय रत्नत्रय, निश्चय धर्म या निश्चय मोक्षमार्ग के कारण होकर कारण होते है । प० फूलचन्द्र जी आदि का कहना है कि "जैसे व्यवहाररत्नत्रय, व्यवहार धर्म या व्यवहार मोक्ष मार्ग कहते हैं वह मोक्ष की प्राप्ति मे निश्चय रत्नत्रय, निश्चय धर्म या निश्चय मोक्ष मार्ग का भी कारण न होकर सनथा अकिंचिल्कर हो बना रहता है इसलिये व्यवहार आदि शब्दो से पुकारा जाता है।" परन्तु उनका ऐसा कहना पूर्वोक्त प्रकार मिथ्या है।
बात वास्तव में यह है कि अर्थ पाच प्रकार का होता है-एक मुख्यार्थ, दूसरा उपचरित अर्थ, तीसरा लक्ष्यार्थ, चौथा व्यग्यार्थ और पाँचवा मिथ्या अर्थ। इनमे से मुख्यार्थ वह है जो अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखते हुए शव्दनिष्ठ अभिधावृत्ति के आधार पर शब्द द्वारा प्रतिपादित होता है । जैसे जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आम,