________________
३३०
मैंने ऊपर वतलाया है कि आगम के अनुसार उपचार एक वस्तु या धर्म मे अन्य वस्तु या धर्म का होता है और "अन्न वै प्राणा" (अन्न ही प्राण हैं) के उदाहरण द्वारा उसे स्पष्ट भी किया है, परन्तु इस विपय मे आगम के दृष्टिकोण से भिन्न है प० फूलचन्द्र जी आदि का दृष्टिकोण है अत इस विषय मे प० फूलचन्द्र जी का दृष्टिकोण क्या है ? इस बात को आगे बतलाया जा रहा है।
प० फूलचन्द्र जी ने जनतत्त्वमीमासा के विपय प्रवेश प्रकरण मे पृष्ठ पर लिखा है कि "जो वचन स्वय असत्यार्थ होकर भी इष्टार्थ का ज्ञान कराने मे हेतु है वह लोक व्यवहार मे असत्य नही माना जाता" तथा अपने इस कथन का चन्द्रमुखी शब्द के उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण करते हुए उन्होने आगे लिखा है कि "यह शब्द ऐसी नारी के लिये प्रयुक्त होता है जिसका मुख मनोज्ञ और आभायुक्त होता है। यह इष्टार्थ है। चन्द्रमुखी शब्द से इस अर्थ का ज्ञान हो जाता है इसलिये लोक व्यवहार मे ऐसा वचन प्रयोग होता है तथा इसी अभिप्राय से शास्त्रो मे भी इसे स्थान दिया गया है, परन्तु इसके स्थान में यदि कोई इस शब्द के अभिधेयार्थ को ग्रहण कर यह मानने लगे कि अमुक स्त्री का मुख चन्द्रमा ही है तो यह असत्य ही माना जायगा क्योकि किसी भी स्त्री का मुख न तो कभी चन्द्रमा हुआ है और न हो सकता है।"
प० फूलचन्द्र जी के उक्त कथन का अभिप्राय यह है कि "लोक व्यवहार मे और शास्त्रो मे ऐसे शब्दो का भी प्रयोग देखा जाता है जिनके अभिधेयार्थ को स्वीकार करना असगत है।