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________________ ३३१ इसलिये अपने अभिधेयार्थ को प्रगट नही कर सकने के कारण ऐसे शब्दो को चन्द्रमुखी शब्द की तरह असत्य ही मानना उचित है फिर भी लोक मे ऐसे शब्दो का प्रयोग देखा जाता है । इस का कारण यह है कि इस तरह के प्रयोग से इष्टार्थ का ज्ञान हो जाया करता है । इस तरह प० जी कहना चाहते हैं कि व्यवहार रत्नत्रय मे रत्नत्रयरूपता, धर्मरूपता या मोक्ष कारणता का अभाव रहते हुए भी तथा निमित्त कारणभूत वस्तु मे कारणता का अभाव रहते हुए भी इनके प्रतिपादक जो वचन शास्त्रो मे पाये जाते है वे सब वचन अपने अभिधेयार्थ का प्रतिपादन करने मे असमर्थ होने के कारण यद्यपि सत्य नही है फिर भी उनको जो शास्त्रो मे प्रयुक्त किया गया है उसका कारण यह है कि इस तरह के प्रयोगो से इष्टार्थ का ज्ञान हो जाया करता है ।" इस अभिप्राय को प० जी ने स्वय निम्नलिखित शब्दो मे व्यक्त किया है । " इसमे सदैह नही कि आगम मे व्यवहारनय की अपेक्षा एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य का कर्ता स्वीकार किया गया है, परन्तु यह कथन यहाँ पर अभिधेयार्थ को ध्यान मे रखकर किया गया है या लक्ष्यार्थ को ध्यान मे रखकर किया गया है - इसे समझकर ही इष्टार्थ का निर्णय करना चाहिये । प्रकृत मे इष्टार्थ ( लक्ष्यार्थ) दो हैं ऐसे वचन द्वारा निश्चयार्थ का ज्ञान कराना यह मुख्य इष्टार्थ है क्योकि यह वास्तविक है और इसके द्वारा निमित्त ( व्यवहार हेतु ) का ज्ञान कराना यह उपचरित इष्टार्थ है क्योकि इस कथन द्वारा कहाँ कौन निमित्त है - इसका ज्ञान हो जाता है । यदि इन दो अभिप्रायो को ध्यान मे रखकर इस प्रकार का वचन प्रयोग किया जाता है तो उसका अभिधेयाथ
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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