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________________ ३२६ (अनुपचरित) ही हैं और न उपचरित ही है क्योकि इनका कोई अर्थ ही नही है अर्थात् ये वचन निरर्थक या कथन मात्र ही है। चूकि उपचरित वचन ऐसे निरर्थक या कथनमात्र न होकर उपचरित अथ का प्रतिपादन करते है इसलिये ही उन्हे उपचरित कहा जाता है। उपचरित अर्थ क्या है ? इस प्रश्न का समाधान हा आलाप पद्धति के निम्नलिखित वचन द्वारा होता है । यया"मुख्याभावे सति निमित्त प्रयोजने च उपचार. प्रवर्तते ।" अर्थात् मुख्य अर्थ का अभाव रहने पर यदि निमित्त और प्रयोजन का सद्भाव हो तो उपचार की प्रवृत्ति होती है । तात्पर्य यह है कि लोक मे अथवा आगम में प्रयुक्त वचन का प्रतिपाद्य अर्थ यदि मुख्यार्थ नही है तो ऐसे सभी वचनो को क्या 'वन्ध्या का पुत्र', 'आकाश के फूल' या 'गधे के सीग'आदि वचनो की तरह निरर्थक ही मान लेना चाहिए? इस प्रश्न का समाधान यह है कि ऐसे सभी वचन निरर्थक नहीं होते हैं। अर्थात ऐसे वचनो मे से उन वचनो को हो निरर्थक वचन कहा जा सकता है जिनका कोई अर्थ हो नहीं होता है। जैसे 'वन्ध्या का पुत्र' आदि वचन, इनके अतिरिक्त कोई-कोई वचन ऐसे भो होते है जिनके प्रतिपाद्य अर्थ की निमित्त तथा प्रयोजन के आधार पर सङ्गति वैठ जाती है। इस तरह उन वचनो द्वारा प्रतिपादित अर्थ उपचरित कहलाता है और उस उपचरित अर्थ प्रतिपादक होने के आधार पर वे वचन भी उपचरित कहलाने लगते है। जैसे "अन्न वै प्राणा" ( अन्न हो प्राण है ) इस वचन द्वारा प्रतिपादित अन्न शब्द का प्राण अर्थ मुख्यार्थ नहीं
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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