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________________ ३२७ है क्योकि अन्न और प्राण दोनो पृथक्-पृथक् पदार्थ हैं लेकिन लोक मे अन्न को प्राण कहा तो जाता है इसलिए आलाप पद्धति के उल्लिखित कथन द्वारा यह निर्णीत होता है कि "अन्न वै प्राणा" ( अन्न ही प्राण है ) इस वचन मे अन्न शब्द का प्राण अर्थ उपचरित अर्थ है और इसका आधार यह है कि एक तो अन्न प्राणो के सरक्षण मे कारण होता है दूसरे इस तरह प्राणो के नरक्षण मे अन्न के उपयोग की महत्ता प्रस्थापित हो जाती है। इस तरह मुख्यार्थ का अभाव रहते हुए निमित्त और प्रयोजन के सद्भाव के आधार पर अन्न का प्राण अर्थ उपचरित सिद्ध होता है और अर्थ के उपचरित सिद्ध हो जाने पर उस अर्थ का प्रतिपादक "अन्न वै प्राणा" ( अन्न ही प्राण है ) यह वचन भी उपचरित सिद्ध हो जाता है। इस विवेचन के आधार पर प्रकृत मे उपचार का समन्वय इस प्रकार करना चाहिए कि कुम्भकार व्यक्ति को घटोत्पत्ति के सम्बन्ध मे निमित्तकारण, व्यवहारकारण, अपरमार्थकारण, अयथार्थकारण, असत्यार्थकारण, अभूतार्थकारण, अवास्तविककारण, वहिरङ्गकारण और उपचरितकारण आदि नामो से इसलिए पुकारते है कि वह कुम्भकार व्यक्ति एक ओर तो घटकार्यरूप परिणत नही होता अत. उसमे मुख्यार्थता का अभाव है व दूसरी ओर मिट्टी से घट का निर्माण होने मे कुम्भकार व्यक्ति की सहायता की अपेक्षा रहा करती है अत वह निरर्थक ( अकिचित्कर) भी नही है अतएव ही कुम्भकार व्यक्ति को कुम्भकार शब्द से पुकारा जाता है । इस प्रकार तत्त्वार्थ श्रद्धान को व्यवहार सम्यग्दर्शन, अपरमार्थ सम्यग्दर्शन, अयथार्थ सम्यग्दर्शन, असत्यार्थसम्यग्दर्शन, अभूतार्थ सम्यग्दर्शन,
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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