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________________ ३२५ दूसरे उपचरित अर्थ के प्रतिपादन द्वारा अनुपचरित अर्थ का बोध हो जाता है इसलिये उसका कथन किया गया है । नयचक्र मे कहा भी है- तह उपयारो जाणह साहणहेऊ अणुवयारे || उसी प्रकार अनुपचार की सिद्धि का हेतु उपचार को जानो । प० जी के इन दोनों कथनो द्वारा ऐसा मालूम पडता है कि वे उपचार को केवल वचन परक मानते है जिसका तात्पर्य यह होता है कि ऐसे वचन से अर्थ का प्रतिपादन तो नही होता है क्योकि पदार्थ जैसा है वैसा प्रतिपादन ऐसे कथन से हो नही सकता है परन्तु अनुपचरित ( पदार्थ जैसा है वैसे ) अर्थ की सिद्धि का वह हेतु होता है । आगे इसकी मीमासा की जाती है । एक उपचार प्रवृत्ति की स्वीकृत की इस सम्बन्ध मे पहली बात तो मैं यह कहना चाहता हूँ कि प० जी की मान्यता के अनुसार यदि उपचरित कथन अनुपचरित अर्थ की सिद्धि का कारण है तो वह निरर्थक या कथनमात्र कैसे हो सकता है ? दूसरी बात मैं यह कहना चाहता हूँ कि आगम मे वस्तु या धर्म मे अन्य वस्तु या धर्म गयी है तथा लोक से भी यही बात कि आगे प्रगट हो जायगा । इसका आशय यह है कि उपचार पदाथ मे होता है और शब्द उस उपचरित अर्थ का प्रतिपादन करता है । इस तरह उपचरित अर्थ का प्रतिपादन करने के आधार पर शब्द भी उपचरित माना जाता है वह केवल निरर्थक या कथनमात्र नही रहा करता है । लर्थात् उपचरित कथन ऐसा नही होगा कि उसका कोई अर्थ ही न हो । जसे 'बन्ध्या का पुत्र ' 'आकाश के फूल' या 'गधे के सीग' आदि वचन न तो वास्तविक प्रचलित है— जैसा
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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