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________________ ३२४ बहिरग और उपचरित्र आदि शब्द एकार्थक हैं अत' यहाँ पर केवल उपचार को लेकर प० फूलचन्द्र जी आदि की प्रकृत विपय सम्बन्धी मान्यता की मीमामा की जा रही है। प० फूलचन्द्र जी जैनतत्त्वमीमासा के पृष्ठ २ पर उपचार के विपय मे लियते हैं "इस प्रसग में प्रकृत मे विचार यह करना है कि तीर्थकरो का जो उपदेश चारो अनुयोगो मे सकलित है उसे वचन व्यवहार की दृष्टि से कितने विभागो में विभक्त किया जा सकता है ? विविध प्रमाणो के प्रकाश मे विचार करने पर मालूम होता है कि उसे हम मुख्य रूप से दो भागो मे विभक्त कर सकते है-उपचरित कथन और अनुपचरित कथन । जिस कथन का प्रतिपाद्य अर्थ तो असत्यार्थ है ( जो कहा गया है पदार्थ वसा नही है ) परन्तु उससे परमार्थभूत अर्थ का ज्ञान हो जाता है उसे उपचरित कथन कहते हैं और जिस कथन से जो पदार्थ जैसा है उसका उसी रूप मे ज्ञान होता है उसे अनुचरित कथन कहते है।" आगे जैनतत्त्वमीमासा के पृष्ठ ८ पर भी प० जी लिखते "यहां पर कोई प्रश्न करता है कि यदि भिन्न कर्तृ-कर्म आदि रूप व्यवहार उपचरित ही है तो गास्त्रो में उसका निर्देश क्यो किया गया है? समाधान यह है कि एक तो निमित्त (व्यवहार हेतु) का ज्ञान कराना इसका मुख्य प्रयोजन है इसलिये यह कथन किया गया है । आलाप पद्धति मे कहा भी है सति निमित्त प्रयोजने च उपचार प्रवर्तते । निमित्त और प्रयोजन के होने पर उपचार प्रवृत्त होता है।
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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