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आरम्भीप परए पापाचरण के त्याग स्प मे व्यवहार सम्यक चारित्रो हुमा करते हैं। क्योकि उपर्युक्त कयन से एक तो यह बात निर्णीत होती है कि चतुर्थ गुणस्थानवी जीव के दर्शनमोहनीय कर्म का माथ अनन्तानुवन्धी कपाय का भी यथायोग्य रूप मे अभाव रहने के कारण यद्यपि सकलो पापरूप पापाचरण का अभाव हो जाता है परन्तु अप्रत्याख्यानावरणादि तीनो कपापो का उदय रहने के कारण उसके आरम्भी पापस्प पापाचरण का अरगुमान भी त्याग नहीं हो पाता है अतएवं वह अविरत सम्यग्दृष्टि कहलाता है। दूसरी बात यह निर्णीत होती है कि दशम गुणस्थान के अन्त समय तक कपाय का उदय रहने के कारण यथारयात चारित्रस्प निश्चय चारित्र का अभाव ही रहा करता है । इस तरह आरम्भी पापरूप पापाचरण का त्याग अप्रत्याख्यानावरण कपाय के अनुदय के साथ पचम गुणस्थान से ही प्रारब्ध होता है अत व्यवहार सम्यक्चारित्र का प्रारम्भ भी पचन गुणस्थान से ही स्वीकार किया गया है। व्यवहार सम्यक्चारित्र को निश्चय सम्यकचारित्र का कारण मानने का भी यही अभिप्राय है कि दशम गुणस्थान तक तो जीवो के पूर्वोक्त प्रकार व्यवहार सम्यक्चारित्र ही रहा करता है व दशम गुणस्थान के अनन्तर पश्चात् ही जीव को निश्चय सम्यक्चारित्र की उपलब्धि होती है।
उपर्युक्त कथन से यह बात भी निर्णीत होती है कि पापाचरण सकल्पी और आरम्भी पापो के रूप मे प्रथम और द्वितोय दोनो गुणस्थानो मे ही रहा करता है व तृतीय गुणस्थान से लेकर दशम गुणस्थान तक वह केवल आरम्भी पाप के रूप मे ही रहा करता है। वह वर्णन कषायो के तीनोदय,