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________________ ३१७ है साथ मे पञ्चम गुणस्थानवर्ती जीव के चू कि अप्रत्याख्यानावरण कषाय का अनुदय (आगामी काल मे उदय आने योग्य निषेको का सदवस्थारूप उपशम और वर्तमान काल मे उदय आने योग्य निषेको का उदयाभावी क्षय) भी हो जाता है अतः वह जीव आरम्भी पाप रूप पापाचरण का भी एक देश त्याग हो जाने के कारण देशव्रती कहलाने लगता है । इसी तरह षष्ठ गुणस्थानवी जीव के अप्रत्याख्यानावरण कषाय के अनुदय के साथ चूकि प्रत्याख्यानावरण कषाय का भी अनुदय हो जाया करता है अत आरम्भी पाप रूप पापाचरण का नियमित विशेप रूप मे त्याग हो जाने के कारण वह जीव सर्वव्रती या महाव्रती कहलाने लगता है। - षष्ठ गुणस्थानवी जीव की जो सर्वव्रत या महाव्रत रूप स्थिति हो जाती है वह आगे के गुणस्थानो मे रहने वाले जीवो के भी रहा करती है लेकिन उन जीवो मे इतनी विशेषता समझना चाहिये कि सप्तम गुणस्थान से लेकर दशम गुणस्थान तक के जीवो के सज्वलन कषाय का उत्तरोत्तर मन्द, मन्दतर और मन्दतम उदय रहने के कारण आरम्भी पाप रूप पापाचरण के त्याग की विशेषता होती जाती है और दशम गुणस्थान के अन्त समय मे तो सज्वलन कषाय का भी पूर्णतया - उपशम या क्षय हो जाने के कारण समस्त आरम्भी पाप रूप पापाचरण का सर्वथा अभाव हो जाता है अत. एकादश गणस्थान से लेकर चतुर्दश गुणस्थान तक के जीव यथाख्यात चारित्र के धारक निश्चय सम्यक्चारित्री हुआ करते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि एकादश गुणस्थान से पूर्व यानि पञ्चम गुणस्थान से लेकर दशम गुणस्थान तक के जीव
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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