SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 352
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१६ आधार पर अविरत सम्यग्दृष्टि रहा करता है । तात्पर्य यह है कि प्रथम और द्वितीय गुणस्थानो में रहने वाले जीवो के अनन्तानुवन्धी आदि चारो कषायो का उदय रहा करता है इसलिए उन जीवो के अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय रहने के कारण तो सकल्पी पाप रूप पापाचरण होता है और अप्रत्याख्यानावरणादि कषायो का उदय रहने के कारण आरम्भी पाप रूप पापाचरण होता है । इन दोनो गुणस्थानवर्ती जीवो मे विशेषता यह है कि प्रथम गुणस्थानवर्ती जीव तो मिथ्यात्व कर्म का उदय रहने के कारण मिय्यादृष्टि कहलाता है जब कि द्वितीय गुणस्थानवर्ती जीव दर्शनमोहनीयकर्म की किसी भी प्रकृति का उदय न रहने के कारण सासादनसम्यग्दृष्टि कहलाता है । इसी तरह तृतीय और चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीवो के अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय न रहने के कारण सकल्पी पाप रूप पापाचरण तो नही होता है लेकिन अप्रत्याख्यानावरणादि तीनो कषायो का उदय रहने के कारण आरम्भी पाप रूप पापाचरण तो होता ही है । इन दोनो गुणस्थानवर्ती जीवो मे भी यह विशेषता है कि तृतीय गुणस्थानवर्ती जीव तो सम्यमिथ्यात्व कर्म का उदय रहने के कारण सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहलाता है लेकिन चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव दर्शनमोहनीय'कर्म का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम रहने के कारण समय - दृष्टि कहलाता है । पचम गुणस्थान से लेकर आगे के सभी गुणस्थानो में रहने वाले जीव दर्शन मोहनीय कर्म का यथायोग्य रूप से अभाव रहने के कारण सम्यग्दृष्टि और अनन्तानुवन्धी कपाय का अभाव रहने के कारण सकल्पी पाप रूप पापाचरण रहित तो होते हो
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy