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________________ ३१६ मन्दादय, मन्दतरोदय और मन्दतमोदय के आधार पर किया गया है । इसमे विशेषता इतनी है कि प्रथम गुणस्थान से लेकर षष्ठ गुणस्थान तक पापाचरण यथासभव अन्तरग और बहिरग प्रवृत्तियो के रूप मे रहा करता है, लेकिन सप्तम गुणस्थान से दशम गुणस्थान तक कषायोदय के आधार पर केवल अन्तरग प्रवृत्ति के रूप मे ही रहा करता है। इसमे यदि पुण्याचरण की दृष्टि से विचार किया जाय तो वास्तव मे पापाचरण षष्ठ गुणस्थान तक ही रहा करता है आगे के गुणस्थानो मे तो पुण्याचरण का रूप ही रहा करता है । यद्यपि आरम्भी पाप रूप पापाचरण का सद्भाव आगम मे पचम गुणस्थान की आरम्भ त्याग प्रतिमा के पूर्व तक ही बतलाया गया है परन्तु जब षष्ठ गुणस्थान मे भी जीव भोजनादिक मे व कमण्डलु व पीछी आदि के उठाने धरने मे प्रवृत्त होता है तो यह भी तो एक प्रकार की आरम्भ क्रिया ही है। इस तरह इस कथन का समन्वय उस उस दृष्टि से कर लेना चाहिये। पूण्याचरण देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, सयम, तप और दान के रूप मे ही आगम मे प्रतिपादित किया गया है। यह भी प्रथम गुणस्थान से लेकर षष्ठ गुणस्थान तक अन्तरग और बहिरग प्रवृत्तियो के रूप मे यथासभव दोनो प्रकार का होता है तथा सप्तम गुणस्थान से दशम गुणस्थान तक केवल अन्तरग प्रवृत्ति के रूप मे ही हुआ करता है। यद्यपि एकादश गुणस्थान से त्रयोदश गुणस्थान मे जब तक योग का निरोध नही हो जाता, तब तक भी पुण्याचरण का सद्भाव मानना चाहिये परन्तु वह कषाय रहित केवल योग के रूप मे ही वहाँ रहा करता है । तात्पर्य यह है कि कषाय सहित शुभ योगमय प्रवृति (पुरुषार्थ) का नाम ही पुण्याचरण है और कषाय सहित
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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