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को ही स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध का कारण स्वीकार किया गया है । यथा
पडिदिदि अणुभागप्पदेस भेदा दु चदु विहो बन्धो। जोगा पयडिपदेसा ठिदि अगुभागा कषाय दो होति ॥३३॥
द्रव्य संग्रह अर्थ-प्रकृति, प्रदेश,अनुभाग और स्थिति के भेद से बन्ध चार प्रकार का होता है। इनमे से प्रकृति और प्रदेश रूप बन्ध तो योगो के आधार पर होता है और स्थिति तथा अनुभाग रूप बन्ध कषाय के आधार पर होता है ।
यहाँ पर कषाय शब्द विशेषरूप से ध्यान देने योग्य है जिसका आशय यह होता है कि बन्ध का कारण मोहनीय कर्म दो प्रकार का होता है-एक दर्शन मोहनीय और दूसरा चारित्र मोहनीय । इनमे से वास्तव मे देखा जाय तो चारित्र मोहनीय कर्म ही कपाय रूप होने से स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध का साक्षात् कारण होता है तथा दर्शन मोहनीय कर्स कषायाको प्रभावित करता हुआ ही उपयुक्त बन्धो का कारण होता है। इस तरह वह परम्परया कारण होता है। यह आश्रय पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय के निम्नलिखित पद्यो से भी प्रगट होता है।
येनाशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बन्धन नास्ति येनाशेन तु रागस्तेनाशेनास्य बन्धन भवति ॥२१२॥ येनौशेन ज्ञान तेनाशेनास्य बन्धन नास्ति। .. येनाशेन तु रागरतेनाशेनास्य बन्धन भवति ॥२१३॥ येनाशेन चरित्र तेनाशेनास्य बन्धन नास्ति। येनाशेन तु रागस्तेनाशेनास्य बन्धन भवति ।।२१४॥