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मिन, वाननिक और उसका नाम पापा
प्रवृत्ति (पार्थ म्प होता है तो पापाचरण तो सामान्यतया
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के का कारण होता है और या मामाarrer काकारण होता है। यहां पर 'नामान्यतया' शब्द ही सूचना देता है कि पापापण मुख्य सेवाही का कारण होता है परन्तु पापाचरण कहते हुए भी जीय के यथायोग्य कभी हुआ करता है और प्यार मुख्य मे के हो वन्य का कारण होता है परन्तु पुण्याचरण रहते हुए भी जीव के यथायोग्य पा हुआ करता है।
ऊपर कहा जा चुका है कि योग का कार्य ज्ञानावरणादि आमों का आसच करना है। चूंकि योग जीव मे प्रथम गुणस्थान र प्रयोग गुणस्थान तक अपनी सत्ता रसता है अत जीव के प्रयोग गुणस्थान तक ज्ञानावरणादि कर्मों में ये यथासम्भव कर्मों का भयव हुआ करता है और वह योग नकि प्रथम गुणस्थान से लेकर दाम गुणस्थान तक यथासंभव कपायों के उदय से अनुरजित होकर उपर्युक्त प्रकार की प्रवृत्ति (पुरुषार्थ) का रूप पाता है अतः जीव के दशम गुणस्थान तक उन आमवित कर्मों का यथायोग्य प्रकार का स्थिति बन्ध ओर अनुभागवन्ध हुआ करता है । यही कारण कि आगम मे कपायों
१ इस विषय को तत्त्वायंसूत्र के छठे अध्याय मे विस्तार से प्रतिपादित किया गया है ।
२. इस विषय को भी हत्यार्थ सूत्र के छठे अध्याय में विस्तार से प्रतिपादित किया गया है।