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________________ ३०७ तथा द्वेप रूप विकार अनादि काल से हो रहा है उसके आधार पर उन ज्ञानावरणादि आठो कर्मों का जीव के साथ स्थिति और अनुभागरूप वन्ध होता आ रहा है। ___ मन, वचन और काय की अधीनता मे होने वाले क्रियावती शक्ति के क्रियारूप परिणमन का नाम योग है। इसे आगम मे आस्रव नाम दिया गया है क्योकि इससे कर्मों का आस्रव (आना) होता है । यह दो प्रकार का है-एक तो शुभ रूप और दूसरा अशुभ रूप । शुभ योगवह है जो दानान्तराय,लाभान्तराय, भोगान्तराय और उपभोगान्तराय कर्मों का सातिशय क्षयोपशम तथा पुण्य कर्मों का उदय रहने पर होता है और अशुभयोग वह है जो दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय और उपभोगान्तराय कर्मो के मन्द क्षयोपशम तथा पाप कर्मों का उदय रहने पर होता है। ये दोनो ही प्रकार के योग जब तक यथासम्भव कपायो के उदय से अनुरजित रहते है तब तक रागात्मक और द्वपात्मक मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृत्ति (पुरुषार्थ) रूप हुआ करते है, लेकिन दोनो मे इतनी विशेषता है कि यदि शुभ योग कपायो के उदय से अनुरजित होने के आधार पर रागात्मक और द्वे पात्मक मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृत्ति (पुरुपार्थ) रूप होता है तो उसका नाम पुण्याचरण है तथा यदि अशुभयोग यथासम्भव कषायो के उदय से अनुरजित होने के आधार पर रागात्मक और पात्मक मान १. काय वामन फर्म योग ॥६-॥ ० ० । २ स आस्रव ॥ ६-२ ॥ त० मू० । ३,४ शुभ परिणाम निर्वृ तो योग शुभः । म परिणाम निवृतो योग: अशुभ । तत्वार्य सूत्र के सूप ६-३ की सर्वार्थ सिदि।
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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