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________________ २६४ ही सकता है इस तरह केवल मुक्ति पाने की दृष्टि से ही जनतत्त्वमीमासा पुस्तक लिखी गई है, तो इस सम्बन्ध मे भी मेरा यह कहना है कि निमित्त को अकिचित्तरसिद्ध करने के विषय मे जो कुछ जैनतत्त्वमीमासा मे लिखा गया है उसमे लौकिक और पारमार्थिक दृष्टियों का भेद दिखलाने का कही प्रयत्न नहीं किया गया है। दूसरी बात यह है कि मुक्ति के सम्बन्ध मे निमित्त नैमित्तिक भाव स्प कार्यकारणभाव के विचार की आवश्यकता नही है - इस बात का निषेध पूर्व मे किया जा चुका है ओर आगे भी किया जायगा । इसलिये यहाँ पर में इतना ही कहना चाहता हूँ कि मुक्ति भी जीव की स्वपरप्रत्यय पर्याय है अत उसकी प्राप्ति के लिये भी निमित्त नैमित्तिक भाव रूप कार्यकारणभाव पर दृष्टि रखना अनिवार्य हो जाता है । तीसरी बात यह है कि जहाँ तक कार्यकारणभाव की व्यवस्था का सम्बन्ध है वहाँ तक उसमे लौकिक और पारमार्थिक कार्यों का भेद नही किया जा सकता है, अन्यथा पारमार्थिक मान्यताओ के सम्बन्ध मे सर्वत्र जो लौकिक दृष्टान्तो का उपयोग आगम मे किया गया है उसका फिर क्या प्रयोजन रह जायगा ? इस तरह उपादान की कार्य रूप परिणति मे निमित्त के सहयोग की अनिवार्य आवश्यकता रहा करती है-इस सिद्धान्त को प० फूलचन्द्र जी और प० जगन्मोहनलाल जी द्वारा भ्रम पूर्ण वतलाया जाना दोनो विद्वानो की भूल ही है, अन्यथा पाच लब्धियो को सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में कारण मानना भी असगत हो जायगा । ७ - पं० फूलचन्द्र जी ने जैनतत्त्वमीमासा के निश्चय व्यवहारमीमासा प्रकरण मे पृष्ठ २५२ पर लिसा है
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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