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"इस जीव को निश्चयरत्नत्रय की प्राप्ति होने पर व्यवहाररत्नत्रय होता ही है । उसे प्राप्त करने के लिये अलग से प्रयत्न नही करना पडता है । व्यवहाररत्नत्रय स्वय धर्म नही है । निश्चयरत्नत्रय के सद्भाव मे उसमें धर्म का आरोप होता है - इतना अवश्य है । इसी प्रकार रूढिवश जो जिस कार्य का निमित्त कहा जाता है उसके सद्भाव मे भी तब तक कार्य की सिद्धि नही होती जब तक जिस कार्य का वह निमित्त कहा जाना है उसके अनुकूल उपादान की तैयारी न हो । अतएव कार्य सिद्धि मेनिमित्तो का होना अकिंचित्कर है ।"
प० जी के उक्त कथन से स्पष्ट मालूम पडता है कि निमित्त को कार्य सिद्धि के प्रति किंचित्कर सिद्ध करने के लिये ही उन्होने उक्त कथन मे निश्चयरत्नत्रय के साथ तैयार उपादान की अर्थात् कार्य से अव्यवहित पूर्व समयवर्तीपर्याय विशिष्ट द्रव्य समर्थ उपादान की तथा व्यवहाररत्नत्रय के साथ निमित्त की तुलना की है और इस तरह वे बतला देना चाहते हैं कि मुक्तिरूप कार्य मे कारणता की दृष्टि से जो स्थिति निश्चय रत्नत्रय की होती है वही स्थिति प्रत्येक कार्य मे कारणता की दृष्टि से समर्थ उपादान की होती है तथा मुक्ति रूप काय में कारणता
दृष्टि से जो स्थिति व्यवहार रत्नत्रय की होती है वही स्थिति प्रत्येक कार्य मे कारणता की दृष्टि से निमित्त की होती है । वह स्थिति क्या है ? उसे उन्होने अपने उक्त कथन मे स्वय ही स्पष्ट किया है । वे कहते है कि व्यवहार रत्नत्रय स्वय धर्म नही है केवल निश्चय रत्नत्रय के सद्भाव मे उसमे धर्म का आरोप होता है । इसी प्रकार की बात वे निमित्त के विषय मे भी कहना चाहते है कि कार्य के प्रति निमित्त मे कारणता तो नही है लेकिन कार्य सिद्धि के अनुकूल उपादान की तैयारी होने पर