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________________ अपने जीवन को दृष्टि से, सार्वजनिक दृष्टि से और पारमार्थिक दृष्टि से भी जो सकल्प करता है, उसकी प्रति के लिये जो मार्ग निश्चित करता है तथा जो उस पर चलता है तो इन सब बातो का औचित्य केमे सिद्ध हो सकता है ? इतना ही नही, एक वात यह भी है कि सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनो ही प्रकार के जीव कार्य के लिये सकल्प करते है, मार्ग निश्चित करते है और मार्ग पर चलते है और उनके वे सकल्प समान रूप से मन के सहारे पर होते हैं, निणय समान रूप से मस्तिष्क के सहारे पर होता है और चलना समान रूप से शरीर के सहारे पर होता है-म तरह सम्यग्दृष्टि को इन बातो का भी औचित्य से सिद्ध हो सकता है ? इस प्रकार उपर्युक्त सभी विवेचन हमे इस निर्णय पर पहुँचा देता है कि विक्षित स्थलो पर निमित्त को अकिंचित्कर मान कर निमित्त नैमित्तिक भाव रुप कार्यकारणभाव की उपेक्षा करना अशक्य ही है, लेकिन इतने पर भी यदि कोई व्यक्ति उसकी उपेक्षा करता है तो उसे कृतघ्न ही माना जा सकता है, साथ मे यह भी कहा जा मकता है कि वह अपने अनुभव, इन्द्रिय प्रत्यक्ष, तर्क और आगम-सभी का अपलाप करता है। प० फूलचन्द्र जी और प० जगन्मोहनलाल जी को इस पर ध्यान देना चाहिये। __यदि कहा जाय कि लौकिक कार्यों ने विद्यमान निमित्त नैमित्तिक भाव रूप कार्यकारणभाव का निषेध जनतत्त्वमीमासा मे नही किया गया है फेवल इतनी बात है कि मुक्ति पाने के लिये जोत्र को निमित्त गामो को आवश्यकता नहीं है और न निमित्त सामग्रो की अपेक्षा रखने वाला जोर कभी मुक्ति पा
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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