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________________ ૨૨ मे उनके द्वारा अपनी बुद्धि का उपयोग किया जाना तथा स्याही, कागज, कलम आदि के सहारे पर हस्त द्वारा लेखन कार्य किया जाना आदि यदि पुस्तक निर्माण मे अनपयोगी ही रहे, उनके सहयोग से पुस्तक का निर्माण होते हुए भी इसके बिना पुस्तक अपने उपादान से अपने आप ही काकतालीयन्याय से निर्मित हो गयो व प० जगन्मोहनलालजी का प्राक्कथन भी उनके सकल्प, बुद्धि के प्रयोग तथा हस्तादि के व्यापार करने पर भी काकतालीयन्याय से अपने आप लेख के रूप मे तैयार हो गया तो ऐसी समझ रखने वाले उक्त दोनो विद्वानो का उक्त प्रकार का सकल्प, बुद्धि का प्रयोग तथा हस्तादि का व्यापार आदि सब उनके अज्ञान का ही कार्य माना जाना चाहिये तथा ऐसी हालत मे १० जगन्मोहनलालजी द्वारा प० फूलचन्द्रजी की प्रशसा किया जाना व इसके लिये प० फूलचन्द्र जी द्वारा प० जगन्मोहनलाल जी के प्रति कृतज्ञता प्रगट किया जाना आदि सब केवल बातूनी जमा-खर्च ही माना जाना चाहिये । क्या दोनो विद्वान समयसार को आचार्य श्री कुन्दकुन्द की रचना नही मानते हैं ? और वे कानजी स्वामी को अभूतपूर्व तत्त्व का उपस्कर्ता व लोकोपकार नही मानते हैं ? यदि ऐसा है तो फिर वे अपने लेखन मे तथा भाषणो मे यह सब प्रगट करते हए क्यो नही अघाते हैं ? मैं तो उनके ऐसे आचरणो को देखकर इसी निर्णय पर पहँचा है कि वे दोनो ही विद्वान "हाथी के खाने के दात और व दिखाने के और" वाली कहावत को ही चरितार्थ कर रहे है । इस तरह मैं यही कहूँगा कि दोनो ही विद्वान सत्य को समझते हुए भी उसकी उपेक्षा कर रहे हैं और यदि उनकी विचारधारा को ही तत्त्वप्ररूपक विचारधारा मान लिया जाय तो फिर लोक मे बुद्धिमान व समझदार व्यक्ति
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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