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कोई रहता है । इस सम्बन्ध मे उन्होने जेनतत्त्वमीमासा के पृष्ठ ४६-५० पर लिखा है -
" इस प्रकार इतने विवेचन से यह स्पट हो जाता है कि जो अनन्तर पूर्वपर्याय विशिष्ट द्रव्य है उसकी उपादान सज्ञा है और जो अनन्तर उत्तर पर्याय विशिष्ट द्रव्य है उसकी कार्य सज्ञा है। उपादान-उपादेय का यह व्यवहार अनादिकाल से इमी प्रकार चला आ रहा है और अनन्तकाल तक चलता रहेगा।"
आगे वे लिखते हैं --
" इस विपय को स्पष्ट करने के लिए हम पहले एक उदाहरण घट कार्य का दे आये हैं । उससे स्पष्ट है कि खान से प्राप्त हुई मिट्टी से यदि घट बनेगा तो उसे कम से उन पर्यायो मे से जाना होगा जिनका निर्देश हम पूर्व मे कर आये है। कितना ही चतुर निमित्त कारण रूप से उपस्थित कुम्हार क्यो न हो वह खान को मिट्टी से घट पर्याय तक की निप्पत्ति का जो कम है उसमे परिवतन नहीं कर सकता । खान से लाई गई मिट्टी जैसेजैसे एक-एक पर्याय रूप से निष्पन्न होतो जाती है तदनुकूल , कुम्हार के हस्त-पादादि का भी परिवर्तन होता जाता है। अन्त मे मिट्टी से घट पर्याय की निष्पत्ति इसी क्रम से होती है और जव मिट्टी मे से घट पर्याय की निष्पत्ति हो जाती है तो कुम्हार का योग-उपयोग रूप क्रिया व्यापार भी रुक जाता है। उपादानउपादेय सम्वन्ध के साथ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध की यह व्यवस्था है जो अनादिकाल से इसी क्रम से एक साथ चली आ रही है और अनन्त काल तक इसी क्रम से चलती रहेगी।"
इस कथन से प० जी वस्तु की अनादि से अनन्तकाल तक की 4कालिक पर्यायो की उत्पत्ति को एक नियत स्थिति मे