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________________ २५१ और भी दूसरे कथनो द्वारा यही सिद्ध करना चाहते हैं कि प्रत्येक समय मे कार्य तो अपने समर्थ उपादान के अनुसार ही हुआ करता है और इस तरह दोनो ही विद्वान निमित्तो की कार्य के प्रति वास्तविक स्थिति न मानते हुए उन्हे केवल उपचरित स्थिति मे पटक देना चाहते हैं । अर्थात् वे कहते है कि उपादान से होने वाली कार्योत्पत्ति के अवसर पर निमित्त नाम से पुकारी जाने वाली सामग्री चूकि वहा नियम से विद्यमान रहा करती है इसलिये लोक मे मात्र ऐसा बोला जाता है कि अमुक कार्य के प्रति अमुक निमित्त होता है, लेकिन वास्तविकता यही है कि कार्य अपने क्षणिक या समर्थ उपादान के बल पर ही नियम से उत्पन्न हो जाया करता है। उक्त उभय विद्वानो की इस उल्लिखित मान्यता को मीमासा के प्रसग मे मैं यह सकेत कर देना चाहता हूँ कि कार्योत्पत्ति मे नित्य उपादान अर्थात् वस्तु की कार्यरूप परिणति मे कारणभूत स्वभावगत योग्यता तथा क्षणिक उपादान अर्थात् वस्तु की कार्यरूप परिणति से अव्यवहित पूर्व समयवर्ती पर्याय विशिष्टता की नियामकता के विषय मे कोई विवाद नही है। यानि विवक्षित वस्तु मे उसी कार्य की उत्पत्ति हो सकती है जिसकी स्वभावगत योग्यता उस वस्तु मे हो तथा वह कार्य तभी उत्पन्न हो सकता है जब वह वस्तु उस कार्य की उत्पत्ति से अव्यवहित पूर्व समयवर्ती पर्याय मे पहुँच गयी हो। विवाद केवल इस बात का है कि जहा उक्त उभय विद्वान यह मानते है कि प्रत्येक कार्य अपने उपादान के अनुसार ही होता है उसमे निमित्त की कुछ भी अपेक्षा नही रहा करती है वहा मेरा कहना यह है कि स्वप्रत्यय कार्य तो निमित्त की अपेक्षा रहित केवल अपने उपादान के अनुसार ही होता है लेकिन स्वपरप्रत्यय कार्य
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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