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________________ २५० आप "जव समर्थ उपादान और लोक मे निमित्त रहते हुए भी कार्य की लोक मे कही जाने वाली वाघक सामग्री आ जाती है तब विवक्षित द्रव्य उसके कारण क्या अपने परिणमन स्वभाव को छोड देता है ? यदि कहो कि द्रव्य का परिणमन तो तव भी होता रहता है । यह तो उसका स्वभाव है उसे वह कैसे छोड सकता है ? तो हम पूछते हैं कि जिसे आप बाधक सामग्री कहते हो वह किस कार्य की बाधक मानकर कहते हो ? कहोगे कि जो कार्य हम उसमे उत्पन्न करना चाहते थे वह कार्य नही हुआ, इसलिए हम ऐसा कहते है, तो विचार कीजिये कि वह सामग्री विवक्षित द्रव्य के आगे होने वाले कार्य की वाधक ठहरो या आपके सकल्प की ? विचार करने पर विदित होता है कि वस्तुत विवक्षित द्रव्य के कार्य की बाधक तो वह त्रिकाल मे नही है । हा आगे उस द्रव्य का जैसा परिणमन चाहते थे वैसा नही हुआ, इसलिये आप उसे कार्य की वाधक कहते हो । सो भाई । यही तो भ्रम है । इसी भ्रम को दूर करना है । वस्तुत उस समय द्रव्य का परिणमन ही आपके सकल्पानुसार न होकर अपने उपादान के अनुसार होने वाला था, इसलिये जिसे आप अपने मन से बाघक सामग्री कहते हो वह उस समय उस प्रकार के परिणमन मे निमित्त हो गयी । अत इन तर्कों के समाधान स्वरूप यही समझना चाहिये कि प्रत्येक समय मे कार्य तो अपने उपादान के अनुसार ही होता है ओर उस समय जो बाह्य सामग्रा उपस्थित होती है वही उसमे निमित्त हो जाती है । निमित्त स्वय अन्य द्रव्य के किसी कार्य को करता हो ऐसा नही है।" (जैनतत्त्व मीमासा का प्राक्कथन पृष्ठ १२) | 1 इस प्रकार दोनो हो विद्वान इन तथा इसी प्रकार के
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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