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________________ २४६ स्वीकार करते है तथा अनित्य ( क्षणिक ) उपादान को समर्थ उपादान की सज्ञा देकर वे यह कहते है कि कार्य की उत्पत्ति समर्थ उपादान से ही होती है । दोनो ही विद्वान नित्य उपादानभूत वस्तु की कार्य से अव्यवहित पूर्व पर्याय विशिष्टता को समर्थ उपादान का लक्षण कहते हैं । इसके समर्थन में मैं यहा पर पण्डित फूलचन्द्र जी का निम्नलिखित कथन उद्धृत कर रहा हूँ । “स्वभाव और समर्थ उपादान मे फरक है । स्वभाव सार्वकालिक होता है इसी का दूसरा नाम नित्य उपादान है और समर्थ उपादान जिस कार्य का वह उपादान होता है उस कार्य के एक समय पूर्व होता है । कार्य समर्थ उपादान के अनुसार होता है, मात्र स्वभाव या नित्य उपादान उसमे अनुस्यूत रहता है इतना अवश्य है । समर्थ उपादान प्रत्येक समय का अन्य अन्य होता है इसलिये इसे क्षणिक उपादान भी कहते है । " ( जैनतत्त्वमीमांसा के "निमित्त कारण की स्वीकृति " प्रकरण पृष्ठ ४१ की टिप्पणी) । अपनी इस मान्यता के आधार पर ही दोनो विद्वानो का कहना है कि उपादानभूत वस्तु जब समर्थ उपादान की स्थिति मे पहुच जाती है तब कार्य नियम से हो जाया करता है । निमित्तो का अभाव अथवा निमित्तो के सद्भाव के साथ ही बाधक सामग्री का सद्भाव जैसी कोई परिस्थिति उस समर्थ उपादान के नियत कार्यरूप परिणत होने मे बाधक नही होती है प्रत्युत जो कार्यरूप परिणति विवक्षित समय मे होती है उसकी उसे साधक हो समझना चाहिये । इसका समर्थन पण्डित जगन्मोहन लाल जी के निम्नलिखित कथन से होता है ।
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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