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मेरे इस स्पष्टीकरण से यह भली-भांति सिद्ध हो जाता है कि मनुष्य के पठन रूप व्यापार के प्रति दीपक की निमित्तकारणता इसलिए नही समझना चाहिए कि वह मनुष्य मे पढने की योग्यता न रहते हुए भी मनुष्य को पढाता है अथवा पढने मे उसे मजबूर करता है और अयवा अपना गुण-धर्म उसमें प्रविष्ट करा देता है प्रत्युत मनुष्य मे पढने को योग्यता हो और उसकी इच्छा पढने की हो तथा अन्य सहायक सामग्री भी विद्यमान हो व वाधक कारणो का अभाव हो तो वह दीपक के सहारे पर पढ सकता है और यदि दीपक का सहारा उसको प्राप्त न हो तो वह नही पढ सकता है । इसी प्रकार दीपक स्वय पढने रूप व्यापार करने लग जाता है-सो यह भी बात नही है । तात्पर्य यह है कि न तो दोपक स्वय पढता है और न वह पढने की योग्यता रहित मनुष्य को पढने में सहायक ही होता है। इसी तरह पढने की योग्यता विशिष्ट मनुष्य पढता तो स्वय (आप) ही है परन्तु दीपक के अभाव मे जो वह पढने मे असमर्य हो रहा था सो दीपक का सहारा प्राप्त होते ही वह पढने लगता है। इस तरह मनुष्य ही पढता है इसलिए तो वह पठन काय के प्रति उपादान कारण है और दीपक की सहायता से वह पढता है इसलिए दीपक उसमे निमित्त या सहायक कारण है। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि निमित्त कारण स्वय कार्यरूप परिणत न होते हुए भी अकिंचित्कर नही है किन्तु उपादान कारण की कार्यरूप परिणति मे सहायक होने के आधार पर कार्यकारी ही है।
(४) प० फूलचन्द्रजी और प० जगन्मोहनलालजो दोनो ही विद्वान् उपादान के नित्य और अनित्य (क्षणिक ) ऐसे दो भेद