SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 292
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५२ होता तो अपने उपादान के अनुसार ही है फिर भी निमित्तो के सहयोग पूर्वक ही हुआ करता है और उसमे यकायक जो विलक्षण परिवर्तन होता हुआ देखा जाता है वह परिवर्तन उपादान के अनुसार होकर भी परिवर्तित निमित्तो के आधार पर ही हुआ करता है। जैसे जीव मे क्रोध कषाय और मानकषाय दोनो रूप से परिणमन करने की योग्यता (उपादानशक्ति) विद्यमान है तो वह जीव तभी और तब तक क्रोधी बनता है जब और जब तक उसमे क्रोध कर्म का उदय उसके क्रोधी बनने मे सक्षम रहता है लेकिन उसमे जव क्रोध कर्म के उदय की कार्य क्षमता नष्ट हो जाती है और मान कर्म के उदय की कार्य क्षमता अस्तित्व में आ जाती है तो तब उसकी क्रोधरूप परिणति समाप्त होकर मान रूप परिणति होने लग जाती है। इसमे दूसरा उदाहरण भव्य और अभव्य जीवो का है। अर्थात् अभव्य जीव कभी मुक्त नही होता है क्योकि उसमे मुक्त होने की स्वभावगत योग्यता ( उपादानशक्ति ) ही नही है और भव्यजीव इसलिये मुक्त हो सकता है कि उसमे मुक्त हाने की स्वभावगत योग्यता ( उपादानशक्ति ) विद्यमान है। परन्तु भव्यजीव मुक्त होता है तो उसके पूर्व उसकी अशुद्ध पर्याय ही राह करती है इसलिये उसका अशुद्ध पर्याय से शुद्ध पर्याय मे पहुंचने का परद्रव्य सम्बन्ध विच्छेद के अतिरिक्त और क्या कारण हो सकता है ? इस पर उक्त उभय विद्वानो को ध्यान देना चाहिये। मेरे इस कथन से यह निष्कर्ष सहज ही निकल आता है कि भव्यजीव मे मुक्त होने की स्वभावगत योग्यता ( उपादानशक्ति ) रहते हुए भी तभी मुक्त होता है जब उसके पक्ष मे सम्पूर्ण निमित्त सामग्री रहा करती है। इतना हो नही, उसके पक्ष मे अनुकूल निमित्त सामग्री के रहते हुए भा यदि
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy