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________________ २४० इस गागा का यह अर्थ है कि जीव के परिणामो के सहयोग से पुद्गल कर्मरूप परिणत होते हैं और पुद्गल कर्म के सहयोग से जीव क्रोधादि रूप परिणत होता है । और तो क्या जीव के ज्ञान और दर्शन गुणो का विविध रूप उपयोगाकार परिणमन ज्ञेय और दृश्य पदार्थों के परिणमन के अनुसार तथा आकाश के अवगाहक स्वभाव का प्रतिक्षण होने वाला परिणमन अवगाह्यमान पदार्थों के परिणमन के अनुसार ही हआ करता है तथा इसी प्रकार की व्यवस्था धर्मादि द्रव्यो मे भी जान लेना चाहिये। इस प्रकार आगम ग्रन्थो मे कार्यकारणभाव को लेकर जैसे उपादानोपादेयभाव के समर्थक प्रमाण पाये जाते हैं उसी प्रकार निमित्त नैमित्तिक भाव के भी समर्थक प्रमाण पाये जाते हैं अत उपादानोपादेय भाव रूप कार्यकारण भाव ही वास्तविक है निमित्त नैमित्तिक भाव रूप कार्यकारण भाव वास्तविक नही है केवल उपचरित अर्थात् कल्पित या कथन मात्र हैऐसा प० फूलचन्द्र जी का मत मिथ्या ही है । क्योकि उपर्युक्त विवेचन से यही सिद्ध होता है कि जिस प्रकार प्रत्येक द्रव्य के कोई भी परिणमन उस उस द्रव्य के उस उस परिणमन के अनुकूल उपादान शक्ति के अभाव मे केवल निमित्तो के आधार पर नही होते है उसी प्रकार अनुकूल उपादान शक्ति का सद्भाव रहने पर भी प्रत्येक द्रव्य के परस्पर विरोधो और अविरोधी सभी प्रकार के स्वपरप्रत्यय परिणमन भी अनुकूल निमित्त सामग्री के समागम के अभाव मे नही हुआ करते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि प्रत्येक द्रव्य के स्वपर प्रत्यय परिणमन उस-उस द्रव्य की परिणमन स्वभावभूत उपादान शक्ति
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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