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________________ २२७ ऐसा परिणमन स्व की अपेक्षा रहित केवल पर की अपेक्षा मात्र से हो हो जाता हो, क्योकि ऐसे परिणमनो मे पर की अपेक्षा के साथ-साथ स्व की अपेक्षा तो रहा ही करती है । आगम मे भी द्रव्यो के उक्त स्वप्रत्यय और स्वपर प्रत्यय ऐसे दो भेद ही परि मन के बतलाये गये हैं । इनके अलावा परिणमन के स्व की अपेक्षा रहित केवल पर प्रत्यय रूप भेद की स्वीकृति आगम मे उपलब्ध नही होती है प्रत्युत ऐसा कथन वहाँ अवश्य पाया जाता है जिससे इस बात की ही पुष्टि होती है कि प्रत्येक द्रव्य स्व की अपेक्षा रहित केवल पर की अपेक्षा से कोई भी परिमन नही होता है । इसमे मैं समयसार को निम्नलिखित गाथाश को प्रमाण के रूप मे उपस्थित करता हूँ 1 ते सयमपरिणमत कह तु परिणामयदि पाणी ।। गा० १२५ का उत्तरार्ध ॥। यह गाथाश पुद्गल के कमरूप परिणमन के सिलसिले मे लिखा गया है । इसमे यह बतलाने का प्रयत्न किया गया है कि जिस पुद्गल द्रव्य मे कर्मरूप परिणत होने की योग्यता (उपदान शक्ति) नही है यानि जो पुद्गल द्रव्य कार्माणवर्गाणारूप नही है उसे जीव कर्मरूप परिणत करने मे कदापि समर्थ नही हो सकता है । इसी प्रकार का कथन जीव की क्रोधादिरूप विभाव परिणति के सम्बन्ध मे भी वही पर ( समयसार मे ) निम्नलिखित रूप मे पाया जाता है तं सयमपरिणमत कह परिणामएदि कोहत्त ॥ गा० १२८ - उत्तरार्ध ॥
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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