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कालिक सत्ता रखने वाले अभावों को ही अत्यन्ताभाव की कोटि में रखा गया है और यदि द्रव्य का नाम सम्भव ही होता तो भी वह प्रध्यमाभाव में हो गर्भित होता अत्यन्ताभाव मे नहीं ।
(२) १० फूलचन्द्रजी ने जैनतत्त्वमीमांसा के विपय प्रवेश प्रकरण मे हो पृष्ठ १५-१६ पर जो यह कथन किया है कि "यह तो स्पष्ट बात है कि प्रत्येक द्रव्य परिणमनस्वभाव है, इसलिये वह अपने इस परिणमनस्वभाव के कारण ही परिणमन करता है अन्य कोई परिणमन करावे तब वह परिणमन करे अन्यथा न करे ऐसा नहीं है ।"
प० जी के इस कथन मे में इस आधार पर सहमत हैं कि सम्पूर्ण द्रव्यो में होने वाले उनके अपने-अपने स्वप्रत्यय और स्वपरत्यय सभी प्रकार के परिणमनो में जो स्व की अपेक्षा पायी जाती है वह हमे इस बात का संकेत देती है कि प्रत्येक द्रव्य अपने परिणमनस्वभाव के कारण ही परिणमन करता है । अर्थात् किसी भी द्रव्य मे ऐसा एक भी परिणमन सम्भव नही है जो स्व की अपेक्षा के बिना केवल पर के आधार पर ही हो गाता हो । स्वपरप्रत्यय परिणमन मे जो पर की अपेक्षा पायी जाती है वह स्व की अपक्षा के साथ ही पायी जाती है। तात्पर्य यह है कि सपूर्ण द्रव्यो मे प्रतिक्षण पड्गुण हानि वृद्धिरूप एक परिणमन तो ऐसा सतत् होता रहता है जो पर की अपेक्षा रहित केवल द्रव्य के अपने परिणमन स्वभाव के आधार पर ही हुआ करता है परन्तु दूसरे परिणमन सपूर्ण द्रव्यों मे एक क्षणवर्ती अथवा अनेक क्षणवर्ती ऐसे भी हुआ करते हैं जिनमे यद्यपि पर की अपेक्षा रहा करती है, परन्तु इसका यह मतलब नहीं कि