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________________ २३५ ज्ञानापरणादि कर्मरूप स्थिति को प्राप्त पुद्गल उस स्थिति को बदल कर अकर्मरूप अन्य किसी भी स्थिति को प्राप्त हो जाते हैं-दूसरा कौनसा अर्थ ग्रहण किया जा सकता है ? कारण कि द्रव्य का द्रव्यरूप से तो कभी नाश होता नही है केवल पर्याय रूप से ही नाश होता है-यह बात प० जी ने भी अपने मन्तव्य मे कही है। इससे यह निष्कर्ष निकला कि पहले जो कार्माणवर्गणारूप पुद्गल था वह जीव का सयोग पाकर अपने उस रूप को छोडकर कर्मरूप परिणत हुआ और पश्चात् जीव से पृथक् हो जाने पर अपनी उस कर्मरूप अवस्था को भी समाप्त कर दूसरी कोई भी अकर्मरूप अवस्था प्राप्त कर ली, लेकिन अपनी पुद्गलरूपता को उसने पूर्वा पर किसी भी अवस्था मे नही छोडा। इस तरह जैनदर्शन में प्रत्येक द्रव्य के उत्पाद और विनाश को अवस्थाओ के परिवर्तन के रूप मे ही स्वीकार किया गया है व द्रव्य स्वय त्रिकालवर्ती ध्रुवता को लिये हुए बना ही रहता है। इस प्रकार सूत्र में पठित 'क्षय' शब्द से ऊपर लिखे प्रकार कोई भी अर्थ स्वीकार किया जाना सूत्रकार के आशय के विरुद्ध नही है। ___ अन्त मे मैं इतना और कह देना चाहता हूँ कि प० जी ने अपने मन्तव्य मे जो यह लिखा है "यहाँ पर क्षय का अर्थ प्रध्वसाभाव है अत्यन्ताभाव नही" इसमे तो मैं सहमत हूँ, परन्तु इसके समर्थन मे दिये गये उनके इस तर्क को-कि "क्योकि किसी भी द्रव्य का पर्याय रूप से ही नाश होता है द्रव्यरूप से नहीं" मैं मानने के लिये तैयार नही हूँ क्योकि ऐसा कोई भी अत्यन्ताभाव नही हो सकता है जिसका प्रादुर्भाव किसी द्रव्य के नाश से होना सम्भव हो । तात्पर्य यह है कि एकद्रव्य मे दूसरे द्रव्य के गुणपर्यायो के अभाव रूप विविध प्रकार के
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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