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________________ २३४ इसके विषय मे मेरा कहना है कि जब जैन दर्शन मे प्रत्येक अभाव को भावान्तर स्वभाव ही माना गया है तो प्रकृत मे ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षयरूप प्रध्वसाभाव को उनकी अकर्मरूप उत्तरपर्याय के रूप मे ग्रहण करना सूत्रकार के आशय के कदापि विरुद्ध नही हो सकता है । दूसरी बात यह है कि उस उस जाति की कार्माणवर्गणा अर्थात् ज्ञानावरणादि कार्यरूप परिणत होने की योग्यताविशिष्ट पुद्गल अनुकूल निमित्तो की सहायता से जीव के साथ अपना विशिष्ट सश्लेष स्थापित कर लेते है । इस सश्लेष को आगम मे प्रकृतिबन्ध नाम से पुकारा गया है और यह प्रकृतिवन्ध ही कार्माणि वर्गणारूप पुद्गलो की ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणति है । इस तरह ज्ञानावरणादि कर्मों के जीव के साथ विद्यमान उक्त सश्लेष सम्बन्ध की समाप्ति हो जाना, उक्त कर्मो का जीव से सर्वथा प्रथक् हो जाना, व ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षय या उनकी अकर्मरूप उत्तरपर्याय आदि कोई भी अर्थ सूत्र मे पठित 'क्षय' शब्द से ग्रहण किया जाय तो यह सूत्रकार के आशय के विरुद्ध नही है । - तात्पर्य यह है कि आगम मे वणित उक्त प्रकार की कार्माणवर्गणा मे अनुकूल निमित्तो के सहयोग से जीव के साथ सयुक्त होकर उसी क्षण ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणत हो जाया करती हैं तथा इन ज्ञानावरणादि कर्मों का आगे चलकर जब जीव से सम्बन्ध विच्छेद होता है तो वे कर्म उस समय अपनी ज्ञानावरणादि कर्मरूप स्थिति को बदल कर अकर्मरूप किसी दूसरी स्थिति को प्राप्त हो जाया करते है । अब विचारना चाहिये कि 'मे पठित 'क्षय' शब्द का इसके अलावा – कि सूत्र
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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