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________________ २१३ मोक्षमार्गता का निषेध करते हैं व इस तरह मोक्षमार्ग मे उसको महत्ता को कम कर देना चाहते हैं वे भ्रम मे है क्योकि उपर्युक्त संकल्पी पापो को समाप्त करने के पश्चात् पूर्वोक्त ढंग से समस्त आरम्भी पापो की समाप्ति करने रूप पुरुपार्थ का नाम ही व्यवहारचारित्र सिद्ध होता है। इससे दूसरी यह बात सिद्ध होती है कि जो व्यक्ति उपर्युक्त प्रकार के व्यवहार सम्यक् चारित्र को अपनाने के विना ही निश्चय सम्यक चारित्र को प्राप्त करने के स्वप्न देखते है वे भी भ्रमरूपी पिशाच से अभिभूत हो रहे हैं कारण कि मन, वचन और काय की एकता (समन्वय) पूर्वक सकल्पी पापो का त्याग हो जाने अर्थात् जीव के इस तरह सम्यग्दृष्टि और सम्यग्ज्ञानी वन जाने के अनन्तर जव तक उसमे (जीव मे) मन, वचन और काय की एकता (समन्वय) पूर्वक ही आरम्भी पापो के त्याग रूप व्यवहार सम्यक चारित्र पूर्ण नही हो जाता है तब तक उसको (जीव को) पूर्वोक्त आत्मलीनतारूप निश्चय सम्यक्चारित्र की प्राप्ति असम्भव है। माना कि मिथ्यादृष्टि जीव भी मन, वचन और काय की एकता ( समन्वय ) पूर्वक आरम्भी पापो का त्यागी होकर वाह्य (द्रव्य) रूप मे निर्दोप अणुव्रती और महाव्रती वन जाता है क्योकि अभव्य जो नवमग्न वेयक तक पहुँचता है उसका कारण उक्त प्रकार निर्दोष महाव्रतो का पालन करना ही है । परन्तु वहाँ यह बात ध्यान मे रखने को है कि मिथ्यादृष्टि जीव जो अणुव्रतो या महाव्रतो का उक्त प्रकार निर्दोष पालन करता है यह सव वह मोहनीय कर्म के मन्दोदय और पुण्यकर्मों के तीव्रोदय के आधार पर सासारिक अभ्युदय को प्राप्ति के लिये ही करता है अत सांकल्पिक पापो का त्याग न होने के कारण
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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