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________________ २१२ देवपूजा आदि पुण्याचरणरूप कार्यो के बल पर ही अप्रत्याख्यानावरणादि कषायो की उदयस्थिति को समाप्त करने के साधन उपलब्ध करके उन कषायो का क्रमश अनुदय (उदयाभाव ) करता हुआ उक्त आरम्भी पापो का धीरे-धीरे त्याग कर वह यथायोग्य रूप मे अणुव्रत, महाव्रत आदि व्यवहारचारित्र की ओर बढने लगता है साथ ही उसमे पुण्याचरण की विशदता भी आती जाती है और इस तरह आरम्भी पापो के त्याग मे वृद्धि करता हुआ वह जीव समस्त वाह्य प्रवृत्तियो से छुटकारा पाकर धर्म ध्यान मे स्थित होकर सज्वलन कषाय की तीव्र अनुभाग शक्ति को कृश करके क्रमश अध करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण परिणामो को धारण करता हुआ अन्त मे उक्त सम्पूर्ण कषायो का व नव नोकषायो का उपशम या क्षय करके औपशमिक या क्षायिक रूप मे यथाख्यात चारित्र का धारक निश्चय 'सम्यक् चारित्री हो जाता है । इस विवेचन से यह बात सिद्ध होती है कि सकल्पी पापो का त्याग हो जाने के पश्चात् जीव द्वारा आरम्भी पापो के त्याग की प्रक्रिया को अपना लिया जाना ही यथायोग्य अणुव्रत, महाव्रत आदि व्यवहार आदि सम्यक् चारित्र का रूप है और चकि आरम्भी पापो के त्याग की इस प्रक्रिया के आधार पर ही जीव समस्त आरम्भी पापो का त्याग हो जाने पर अन्त मे आत्मलीनता रूप निश्चय चारित्र की प्राप्ति करने में समर्थ होता है अन्यथा नही, अतएव इसे आगम मे निश्चय सम्यक् चारित्र का कारण बतलाया गया है । इस तरह जो व्यक्ति उक्त अरणुव्रत, महाव्रत आदि रूप व्यवहार सम्यक् चारित्र को पुण्याचरण का रूप देकर ससार का कारण मानते हुए उसमे
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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