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________________ २११ कर्म का उदय समाप्त हो जाता है अर्थात् यथाक्रम से दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय कर्मो का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपगम हो जाता है उस जीव की जान रूप भाववती शक्ति का उपयुक्ताकार परिणमन तो दर्शन मोहनीय कर्म का उपगम, क्षय अथवा क्षयोपशम होने पर प्रदर्शन और सम्यग्वानरूप होने लगता है व योगस्थिति को प्राप्त क्रियावती क्ति का निवृत्य के रूप में परिणमन चारित्र मोहनीय व के उपम, क्षय अथवा क्षयोपशम के आधार पर सम्यक् चारित्रशप होन लगता है जो उस जीव के लिये मोक्ष का कारण होता उन ( सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का ) विकास ग्रम निम्न प्रकार है । अनादिकाल से मोहनीय कर्म के उदय के अधीन होकर मिथ्यादर्शन, मिव्याज्ञान और मिथ्याचारित्ररूप ससार मार्ग मे प्रवृत जीव मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होने के लिये प्रथमतः गृहस्य के कट आवश्यक कृत्य, देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, सयम, तप रान गुण्याचरण यो करता हुआ ददर्शन मोहनीय कर्म गोल, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यत् प्रकृति रूप तीन तथा चारि मोहनीय कर्म की जनत्तानुवन्धी ब्रोध, मान, माया और लोभ र नार—उन सात प्रकृतियों का क्षयोपगमनव्धि, विविध देणनालब्धि, प्रायोग्यलब्धि और करणलब्धिबाधार पर यथायोग्य प्रकार उपयम, क्षय जया करके पूर्वोक्त प्रकार व्यवहार और निश्चय सम्यग्दृष्टि और नम्यग्ज्ञानी बन कर पहने तो हिमादि पानी की वन्यरूपता को समाप्त कर उन पापी को मेवानीपत में परिणत करता है पश्चात् पूर्वोक
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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