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उसका वह आरम्भी पापो का त्याग व्यवहार सम्यक् चारित्र नही कहला सकता है फिर भी यदि कोई व्यक्ति या दल इसे व्यवहारचारित्र कहने का आग्रह करता है तो यह पुण्याचरण के रूप मे व्यवहारचारित्र हो सकता है और उसमे भी इतनी विशेषता होगी कि वह यदि अभव्य मिथ्यादृष्टि का पुण्याचरण है तो उसे कथनमात्र व्यवहारचारित्र माना जायगा, क्योंकि वास्तव मे तो वह पूर्वोक्त प्रकार पुण्याचरण ही होगा । इसी प्रकार यदि वह भव्य मिध्यादृष्टि का व्यवहारचारित्र है तो पुण्याचरण के रूप में सम्यग्दर्शन की कारणता के आधार पर उसे उपचरित व्यवहारचारित्र भी कहा जा सकेगा और यदि वह सम्यग्दृष्टि के सकल्पी पापो के त्यागपूर्वक अप्रत्यास्याना - वरणादि कपायो के अनुदय आदि के आधार पर निष्पन्न हुआ है तो उसे तव निश्चय सम्यक् चारित्र की कारणता के आधार पर वास्तविक ( सद्भूत) व्यवहार सम्यक् चारित्र कहा जायगा । उसे उस हालत में कथनमात्र, निरर्थक, मिथ्या या कल्पित व्यवहार चारित्र कदापि नही कहा जा सकेगा । इससे यह बात भी फलित होती है कि जो व्रताचरण भले ही वह अणुव्रत या महाव्रत रूप ही क्यो न हो-यदि मन, वचन और काय की एकता (समन्वय) पूर्वक निर्दोषता लिये हुए न हो तो वह ढोग या पाखण्ड के रूप मे पापाचरण रूप मिथ्याचारित्र ही माना
जायगा ।
यह विवेचन इस वात को भी अच्छी तरह स्पष्ट कर देता है कि जो व्यक्ति व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्ज्ञान और व्यवहार सम्यक् चारित्र मे मोक्षमार्गता का निषेध करने पर तुले हुए हैं वे एकान्तपक्षी मिथ्यादृष्टि ही हैं । इसी तरह जो