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के साथ न वदताम्प गयोग को प्राप्त जीव भी अपने विविध प्रकार के परिणमन किया करते हैं। इसी तरह शरीर के गाय गतवद्धता गयोग को प्राप्त जीव शरीर में होने वाली विकृति के आधार पर गुम व दुमका संवेदन किया करते है । यश तक कि गीता में ठण्डी वायु अथवा ठण्डे जल का परी के साथ सम्पर्क होने पर जीव को दुमका गवेदन इसलिये हुआ करता है कि जीव का शरीर के साथ और शरीर का उक्त बागु या जल के साथ विमान यायोग्यता या स्पष्टता रूप गयोग चान्तविक (भूत) है। ऐसे ही श्रीम में ठण्डी वायु या टपडे जन का शरीर के साथ सम्पचं होने पर जीव को जो युग या गवेदन हथा करता है वह इसलिये हुआ करता है कि जीव का शरीर के साथ और शरीर का उक्त चालु या जल के गाध विद्यमान यथायोग्य वळता या स्पृष्टाप योग वान ( मन ) है । तर पौद्गनिक स्पर्शन, रगना, नामिका, नेत्र और कर्ण न पाच इन्द्रियो तथा पोद्गतिक हृदय और मस्ति के साथ विद्यमान जीव का वद्धतारूप
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योग चूकि वास्तविक ( मदत ) है इसलिये ही जीव इन इन्द्रियादिक के सहयोग से शेयभूत पदार्थों का ज्ञान किया करता है । ओर तो क्या अपना पृथक् अस्तित्व रखने वाले चमा और कर्ण दोनों कमश नेत्र और कर्ण के साथ वास्तविक ( सभूत ) प्रत्यासक्ति को प्राप्त होकर ही जीव के पदार्थज्ञान मे विशेषता पैदा कर दिया करते है । वद्धतारूप सयोग की वास्तविकता के गवव ही वचन (मुस) के सहयोग से जीव का बोलने रूप व्यापार देखा जाता है जिसके निमित्त से पोद्गलिकभापावणा दरूप परिणत हुआ करती है भर गले की बनावट के अनुसार आवाज मे सुरीलापन अथवा वर्कशपन भी उक्त बद्धतास्प योग की वास्तविकता के सवब ही देखने मे