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________________ आते हैं । हृदय के साथ विद्यमान वद्धतारूप सयोग की वास्तविकता के सवब ही जीव की राग, द्वेप, मोह, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि अनुचित तथा दया, धृति, सतोष, सहृदयता, मृदुता, सरलता आदि उचित परिणतिया बुद्धिपूर्वक हुआ करती हैं । इसी प्रकार मस्तिष्क के साथ विद्यमान वद्धता - रूप सयोग की वास्तविकता के सबब ही जीव का ज्ञान स्वभाव स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और श्रुत का रूप धारण किया करता है । बद्धतारूप सयोग की वास्तविकता के सबब ही ज्ञानावरण कर्मजीव के ज्ञान को आवृत किये हुए है । इतना अवश्य है कि ज्ञानावरण कर्म का सभी छद्मस्थ जीवो मे उदयरूप से सद्भाव न होकर सततक्षयोपणमरूप से ही सद्भाव रहता है फिर भी क्षयोपशम की तरतमता के आधार पर ही उन जीवो मे ज्ञान के विकास की तरतमता पायी जाती है । इसी प्रकार छद्मस्थो के ज्ञान मे जो इन्द्रियादिक को तरतमरूप सहायता अपेक्षित रहा करती है वह चीर्यान्तराय कर्म के तरतमरूप क्षयोपशम का ही परिणाम है । ज्ञान जैसी व्यवस्था दर्शनावरणकर्म के क्षयोपशम की तरतमता के आधार पर जीव के दर्शन गुण की समझ लेना चाहिये और ऐसी ही व्यवस्था वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र तथा शेष अन्तराय कर्मो की यथायोग्य उदयादि अवस्थाओ के आधार पर जीव की विविध परिणतियो की प्रादुर्भूति के सम्बन्ध मे भी समझ लेना चाहिये । वास्तव मे आगम की यह स्पष्ट घोषणा है कि कर्म और नोकर्म के साथ विद्यमान बद्धतारूप सयोग की वास्तविकता के सबब ही जीव, देव, नारकी, मनुष्य और तिर्यंच तथा एकेन्द्रिय, द्वन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पचेन्द्रिय, सज्ञी, असज्ञी, वादर,
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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