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________________ १६५ है । इसके विपरीत मोक्ष निश्चय और व्यवहार के विकल्पो मे से निश्चय की कोटि मे समाविष्ट होता है क्योकि इसमे विद्यमान जीव अपने अस्तित्व को कर्मों तथा नोकर्मों से सर्वथा पृथक् कर लेता है । इस तरह ससाररूप व्यवहार और मोक्षरूप निश्चय इन दोनो मे से ससाररूप व्यवहार सर्वथा हेय है और मोक्षरूप निश्चय सर्वथा उपादेय है। जितना भी द्रव्यानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और प्रथमानुयोगरूप जैनागम है वह सब ससाररूप व्यवहार की हेयता और मोक्षरूप निश्चय की उपादेयता के आधार पर ही निर्मित किया गया है। अर्थात् ससार क्या है ? उसके कारण क्या है ? और उसकी हेयता क्यो है ? इसी तरह मोक्ष क्या है ? उसके कारण क्या है ? और उसकी उपादेयता क्यो है ? इत्यादि आत्म सम्बन्धी बातो को ध्यान में रखकर ही द्रव्यानुयोग आदि उक्त प्रकार के आगम की रचना की गयी है । इतना ही नहीं, यहा तक समझना चाहिये कि आगम वही है जिसका सम्बन्ध ससार की हेयता और मोक्ष की उपादेयता से है । इसके विपरीत अर्थात् प्राणियो की अनर्थकारी प्रवृत्ति को पुष्ट करने वाला जितना भी आगम है वह सव आगम न होकर आगमाभास ही है। यहा पर यह ध्यान रखना है कि जीव का उक्त वद्धतारूप ससार जिसे व्यवहार कोटि मे समाविष्ट किया गया है-व्यवहार के रूप मे उपचरित होकर भी कल्पित नही है जैसा कि प० फूलचन्द्र जी मानते है किन्तु सद्भूत ही है। केवल पराश्रित है इसलिए उपचरित है। यही कारण है कि जिस प्रकार ऐजन के चलने पर उसके साथ सद्भूत सयोग को प्राप्त रेलगाडी के डब्बे उस ऐजन के साथ ही चल पडते है और उसमे बैठे हुए व्यक्ति नही चलते हुए भी यथास्थान पहुँच जाते है उसी प्रकार कर्म-नोकर्म
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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