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मिथ्याज्ञान और मिथ्या चारित्ररूप पुरुषार्थ के रूप मे व्यवहार रूप है और मोह कर्म के उपशय, क्षय या क्षयोपशम के आधार पर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र रूप पुरुपार्थ के रूप मे निश्चय रूप है । इसी तरह दर्शनमोह और अनन्तानुवन्धी रूप चारित्र मोह के उपशम, क्षय या क्षयोपम के आधार पर जीव मे तत्त्वार्थ श्रद्धान का होना व्यवहार सम्यग्दर्शनरूप व्यवहार है और आत्मा कल्याण के प्रति उसका उन्मुख हो जाना निश्चय सम्यग्दर्शन रूप निश्चय है तथा व्यवहार और निश्चय रूप सम्यग्दर्शन के साथ ही जीव के आत्म ज्ञान मे सम्यक्पन का आ जाना व्यवहार सम्यग्ज्ञान रूप व्यवहार है और आत्मज्ञान में सम्यकपन का आ जाना निश्चय सम्यग्ज्ञानरूप निश्चय है। इसी तरह सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान हो जाने के पश्चात् शेष चारित्र मोह के यथासभव क्षयोपशम के आधार पर पचम गुणस्थान से दशम गुणस्थान तक अणुव्रत, महाव्रत, समिति, गुप्ति, ध्यान आदि रूप जीव का पुरुषार्थ व्यवहार चारित्ररूप व्यवहार है और चारित्र मोह का सर्वथा उपशम अथवा क्षय हो जाने पर जीव का आत्मलीनता रूप पुरुपार्थ निश्चय चारित्र रूप निश्चय है।
इस विस्तृत विवेचन से वस्तु मे पाये जाने वाले निश्चय और व्यवहार के विविध रूपो का सरलता से बोध हो जाता है और यह बात भी समझ में आ जाती है कि भिन्न-भिन्न स्थलो मे अथवा प्रकरणो मे निश्चय और व्यवहार के भिन्न-भिन्न रूप हुआ करते है। इसके अतिरिक्त यह भी समझ में आ जाता है कि जहा जिस प्रकार का निश्चय या व्यवहार का विकल्प वस्तु मे विवक्षित किया जाय वहा उस से ठीक विपरीत ही व्यवहार या निश्चय का विकल्प वस्तु मे निर्धारित करना