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________________ १७७ अहमेदं एदमह अहमेदस्सेव होमि मम एद । अण्ण ज परदव्व सचित्ताचित्त मिस्स वा ।।२५।। आसि मम पुत्वमेद अहमेद चावि पुवकालसि । होहिदि पुणोवि मज्झ अहमेद चावि होस्सामि ।।२६।। एव तु असभूदं आदवियप्पं करेदि समूढो । भूदत्य जाणन्तो ण करेदि दु त असमूढ़ो ।।२७।। अण्णाणमोहिदमदो मज्झमिण भणदि पुग्गल दव्व । बद्धमबद्ध च तहा जीवो बहुभाव सजुत्तो ।।२।। सवण्हणाणाविट्ठो जीवो उवभोगलक्खणोणिच्च । कह सो पुग्गलदव्वी भूदो ज भरणसि' मज्झमिण ॥२६॥ जदि सो पुग्गलदवी भूदो जीवत्तमागद इदर । तो सक्का वुत्तु जे मज्झमिण पुग्गल दव्व ॥३०॥ इन गाथाओ का भाव यह है कि जो जीव अपने से भिन्न जितना भी सचित्त, अचित्त और सचित्ताचित्त (मिश्र) पदार्थ समूह है उसके साथ 'मैं यह हूँ', 'यह मैं हूँ', 'ये मेरा है', 'मैं इसका हूँ इस प्रकार वर्तमान रूप और इसी प्रकार भूत तथा भविष्यद् प असत्य विकल्प करता रहता है वह अज्ञानी है और जो अपनी तथा पर की वास्तविक (स्वतन्त्र) स्वरूप स्थिति को समझ लेता है वह ज्ञानी है। जब तक जीव की बुद्धि मोहकर्म से आच्छादित रहती है तब तक ही वह बद्ध तथा अबद्ध पुद्गल द्रव्य मे अहभाव और ममभाव किया करता है। चूंकि सर्वज्ञ के ज्ञान मे जीव नित्य उपयोग स्वरूप ही प्रतिभासित हआ है अत वह पुद्गल द्रव्यरूप कैसे हो सकता है ? यदि जीव पुद्गल द्रव्यरूप हो जाता व पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्य रूप हो जाता तो कहा जा सकता था कि पुद्गल द्रव्य मेरा है ।
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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