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________________ १७६ प्रतिनियत ज्ञायकत्वरूप स्वभाव इससे पृथक् हो है । इस प्रकार आत्मा और पौद्गलिक कर्म तथा नोकर्म की मिलावट से बने हुए एकत्व मे भी अपने पृथक् एकत्व का ज्ञान अज्ञानीजनो को करा देना ही समयसार आदि आध्यात्मिक ग्रन्थो का उद्देश्य है क्योकि जब तक अज्ञानीजन इस मिलावट को मिलावट नही समझकर अखण्ड एकरूपता ही इसमे समझते रहेगे तव तक वे अपने कल्याण मार्ग मे अग्रसर नही हो सकते है । समयसार की निम्नलिखित गाथाये इसी अभिप्राय को प्रगट करती हैं । सुदपरिचिदाभूदा सव्वस्स वि कामभोगबन्धकहा । एयत्तस्सुवलम्भो णवरि र सलभो विहत्तस्स ॥४॥ त एयत्तविभत्त दाएह अप्पणी सविहवेण । जदि दाएज्ज पमाण चुविकज्ज छल र घित्तन्व ||५|| इन गाथाओ का भाव यह है कि ससारी प्राणी अपने इस कर्म - नोकर्म की मिलावट से बने एकत्र मे अनादिकाल से र रहे हैं इसलिये आचार्य कहते है कि आत्मा के स्वतन्त्र ग्रन्थ-निर्माण मे मेरा समयसार मे निम्न एकत्व का उन्हे भान करा देना हो इस उद्देश्य है । इसके आगे अज्ञानी का लक्षण प्रकार बतलाया है कम्मे णोकमयि अहमिदि अहक च कम्म शोकम्मं । जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव ॥२२॥ अर्थ- - जव तक जीव कर्म और नोकर्म मे अपना और अपने मे कर्म और नोकर्म का रूप देखता रहता है तब तक वह अज्ञानी है । इसके आगे समयसार मे हो ज्ञानी और अज्ञानी का भेद निम्न बतलाया गया है
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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