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________________ १७४ ग्रन्थो मे एक तादात्म्य सम्बन्ध के अलावा सयोगादि सम्बन्धी का जो निषेध किया है उसका कारण यह है कि कोई भी वस्तु उसी हालत मे स्वतन्य रूप से वरतु मानी जा सकती है जबकि उसका स्वत सिद्ध अनादिनिधन प्रतिनियत अस्तित्व हो, उसलिए जव म दूसरी वस्तुओ मे मयुक्त अथवा अमयुक्त किसी भी वस्तु के निजी अस्तित्व की सिद्धि करना चाहते है तो यह सिद्धि एक तादात्म्य सम्बन्ध के आधार पर ही हो सकती है सयोगादि सम्बन्धो के आधार पर नहीं, क्योकि मयोगादि सम्बन्ध अपने आप मे वास्तविक होते हुए भी किसी भी वस्तु के निजी वस्तुत्व की सिद्धि मे महायक नहीं होते है और इसका भी कारण यह है कि सयोगादि सम्बन्ध पहले से हो म्बतन्त्रस्प से मिद वस्तुओ मे ही हुआ करते है। समयसार आदि आध्यात्मिक गन्थो मे सयोगादि सम्बन्धो का निषेध इसी दृष्टि से किया गया है, ऐसा नहीं समलना चाहिये कि सयोगादि सम्बन्ध सर्वथा कल्पित ही हैं। क्योकि समयमार राय के रचयिता आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार के सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार में "चेया दु पयडीयत्थ" इत्यादि गाथाओ द्वारा स्वय ही आत्मा और प्रकृति ( पुद्गल ) दोनो का समारोत्पत्ति का कारणभूत वन्ध स्वीकार किया है। दो आदि पुद्गल परमारराओ का स्कन्धरूप परिणमन यदि उनका एक क्षेत्रावगाह रूप सयोग नही है तो फिर क्या है ? इसी प्रकार दूध और जल का तथा सोना और चाँदी का एक क्षेत्रवगाहरूप सयोग प्रत्यक्ष ही देखने मे आता है। इस प्रकार जिस तरह एक ही वस्तु मे स्वरूप और स्वरूपवान का तथा प्रदेश और प्रदेशवान का भेद करके तादात्म्य सम्बन्ध की सत्ता सिद्ध होती है उसी तरह दो आदि स्वतन्न वस्तुओ मे भी सयोगादि सम्बन्धो की सत्ता सिद्ध होती
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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